Tuesday, July 31, 2012

और आज ..


इक दौर था वो भी...
हर घर के किसी एक ही कमरे में पड़ा
एक ही टी.वी.
सबका सांझा हुआ करता था 
शाम ढलते ही उमड़ पड़ता 
देखने वालों का जमावड़ा 
सब के सब एक ही जगह ...
सब... इक साथ...पास-पास 
सबकी सांझी ख़ुशी, सांझी सोच, सांझी मर्ज़ी 
तब ......
घर में सब जन एक थे... सब इक साथ ...
इक दूजे के पास-पास, इक दूजे के साथ-साथ 

इक दौर है ये भी ... 
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है 
सब.... अलग-अलग अपना 
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी. 
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना 

और आज .......

अपने अपने सामान के साथ 
हर कोई अकेला है ...... 

(daanish)

3 comments:

  1. वाकई अकेले हैं ...
    प्रभावशाली रचना !

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  2. adarshsethi688/01/2012

    TRUE STORY! EK KARWA SUCH

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