प्रवृत्ति ...


आज यूँ ही 
छत्त पर डाल दिए थे 
कुछ बाजरे के दाने 
उन्हें देख 
बहुत से कबूतर 
आ गए थे खाने 
खतम हो गए दाने 
तो टुकुर टुकुर 
लगे ताकने 
मैंने डाल दिए 
फिर ढेर से दाने 
कुछ दाने खाकर 
बाकी छोड़कर 
कबूतर उड़ गए 
अपने ठिकाने 

तब से ही सोच रही हूँ 
इंसान और पक्षी की 
प्रवृत्ति में 
अंतर परख रही हूँ 
परिंदे नहीं करते संग्रह 
और न ही उनको 
चाह  होती है 
ज़रुरत से ज्यादा की 
और इंसान 
ज्यादा से ज्यादा 
पाने की चाह  में 
धन-धान्य एकत्रित 
करता रहता है 
वर्तमान में नहीं , बल्कि 
भविष्य में जाता है 
प्रकृति नें सबको 
भरपूर दिया है 
पर लालची इंसान 
केवल अपने लिए 
जिया है 
इसी लालच नें 
समाज में 
विषमता ला दी है 
किसी को अमीरी 
तो किसी को 
गरीबी दी है 
काश.....
विहंगों से ही इंसान 
कुछ सीख पाता 
तो
धरती का सुख वैभव 
सबको मिल जाता ....


(संगीता स्वरुप )


उन्मादी प्रेम .....

उफनते समुद्र  की 
लहरों सा 
उन्मादी प्रेम 
चाहता है 
पूर्ण समर्पण 
और निष्ठां 
और जब नहीं होती 
फलित इच्छा सम्पूर्ण 
तो उपज आती है 
मन में कुंठा 
कुंठित मन 
बिखेर देता है 
सारे वजूद को 
ज़र्रा ज़र्रा 
बिखरा वजूद 
बन जाता है 
हास्यास्पद 
घट  जाता है 
व्यक्ति का कद 
लोगों की नज़रों में 
निरीह सा 
बन जाता है 
अपनों से जैसे 
टूट जाता नाता है 
गर बचना है 
इस परिस्थिति  से 
तो मुक्त करना होगा मन 
उन्माद छोड़ 
मोह को करना होगा भंग|
मोह के भंग होते ही 
उन्माद का ज्वर 
उतर जायेगा 
मन का समंदर भी 
शांत लहरों से 
भर जाएगा ......

(संगीता  स्वरुप )