किताबों के पन्नों को पलटकर सोचता हूँ
यूँ पलट जाए ज़िन्दगी तो क्या बात है ...
कविता का मुख्य विषय यह है कि महानता केवल ऊँचाई या पद (Position) प्राप्त करने में नहीं है, बल्कि उस ऊँचाई को दूसरों के लिए उपयोगी (Useful) और सुलभ (Accessible) बनाने में है, जिसमें 'विस्तार' और 'जुड़ाव' हो।
कवि ऊँचे पहाड़ को उस सफलता या पदवी का प्रतीक मानते हैं जो दूसरों से कटा हुआ है:
"पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते... जमती है सिर्फ बर्फ": यह बताता है कि केवल ऊँचाई पर भौतिक रूप से कोई उत्पादकता (Productivity) या जीवन (Life) नहीं है। ऐसी सफलता बंजर और ठंडी होती है।
"खेलती, खिलखिलाती नदी... अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है": जीवनदायिनी नदी (जो खुशी और प्रवाह का प्रतीक है) भी पहाड़ की उस 'मृत' ऊँचाई को छूकर पत्थर बन जाती है या ठंड से जम जाती है। यह दिखाता है कि अत्यधिक और कठोर ऊँचाई किसी भी प्राकृतिक भावना को नष्ट कर देती है।
"ऐसी ऊँचाई जिसका परस पानी को पत्थर कर दे": ऐसी ऊँचाई जो हर चीज़ को कठोर, स्थिर और निर्जीव बना दे।
"गौरैया वहां नीड़ नहीं बना सकती... थका-मांदा बटोही उसकी छाँव में पल भर पलक ही न झपका सकता है": यह सबसे महत्वपूर्ण पंक्ति है। यह दिखाती है कि ऐसी ऊँचाई सामान्य जीवन के लिए बेकार है। वह किसी गरीब या थके हुए व्यक्ति को आश्रय (Shelter) या आराम नहीं दे सकती।
कवि स्पष्ट करते हैं कि अकेलेपन में खड़ा होना महानता नहीं है:
"पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है": पहाड़ अकेले खड़े होते हैं क्योंकि वे अपनी प्रकृति से मजबूर हैं। उसी तरह, जो व्यक्ति केवल ऊँचाई पर पहुँचने के लिए सबसे अलग-थलग हो जाता है, वह महान नहीं बल्कि मजबूर है।
"जो जितना ऊँचा, उतना एकाकी होता है": यह एक गहरी मानवीय सच्चाई है। बड़े पदों या अत्यधिक सफलता पर पहुँचने वाले लोग अक्सर अकेले हो जाते हैं, उन्हें अपना दुख (भार) स्वयं ढोना पड़ता है और उन्हें अक्सर "चेहरे पर मुस्कान चिपका, मन ही मन रोना" पड़ता है।
कवि बताते हैं कि सच्ची महानता के लिए ऊँचाई के साथ क्या आवश्यक है:
"ज़रूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो": यहाँ 'विस्तार' का अर्थ है जुड़ाव, पहुँच, और सामाजिक प्रासंगिकता (Social Relevance)। सफलता ऐसी हो जो सबके लिए खुली हो।
"औरों से घुले-मिले... किसी को साथ ले, किसी के संग चले": जीवन का असली अर्थ साझा करने, जुड़ने और सामूहिक विकास में है।
"भीड़ में खो जाना... स्वयं को भूल जाना... अस्तित्व को अर्थ, जीवन को सुगंध देता है": व्यक्तिगत अहंकार (Ego) को छोड़कर, दूसरों के साथ घुलना-मिलना ही जीवन को वास्तविक अर्थ (Meaning) और सुगंध (Fragrance) प्रदान करता है।
कविता का अंत एक विनम्र और मार्मिक प्रार्थना से होता है:
कवि ऊँचे कद के इंसानों की ज़रूरत को स्वीकार करते हैं जो 'आसमान छू लें' और 'नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें'। यानी, बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करें।
किन्तु चेतावनी: "इतने ऊँचे भी नहीं कि पाँव तले दूब ही न जमे..." अर्थात्, वे इतने अलग न हो जाएँ कि वे ज़मीन से और साधारण जीवन की खुशियों से पूरी तरह कट जाएँ।
"मेरे प्रभु, इतनी ऊँचाई कभी मत देना, के गैरों के गले न लग सकूं। इतनी रुखाई (कठोरता) कभी मत देना।": यह कविता का सार है। कवि ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें ऐसी सफलता या ऊँचाई न मिले जो उन्हें मानवीय संवेदना (Human Emotion) से दूर कर दे, जिससे वे दूसरों के दुःख-दर्द में उनका साथ न दे सकें या उनसे प्यार और स्नेह से न मिल सकें।
यह कविता हमें सिखाती है कि सच्ची सफलता (True Success) वह नहीं है जो व्यक्ति को 'अकेला शिखर' बना दे, बल्कि वह है जो उस शिखर को जीवन, प्रेम और मानवता के 'विस्तार' से जोड़ती है। जहाँ केवल ध्वज गाड़े जाते हैं, वहाँ महानता नहीं, बल्कि जहाँ 'नीड़' (घोंसला) बनता है, वहाँ जीवन का सार है।
