Monday, October 22, 2012

अंतहीन जीवन यात्रा


पैसों से भरा बैग उठाए बाऊजी आज क्या तनकर चल रहे हैं। मानो उम्र के बीस साल पीछे छोड़ आए हों। आखिर उनकी छाती चौड़ी क्यों नहीं होगी...? चारों बेटों की शादी करके घर में चार चार बहुएँ आ गई हैं। आज ही चौथी बहू दिव्या की डोली आई है। बहुत शानदार शादी हुई है दिल्ली के फाईव स्टार होटल में। भई यह शादी तो पूरे खानदान में एक मिसाल बन गई है। उस के ननिहाल ईरान में हैं। पिता का भी मद्रास में अच्छा ख़ासा व्यापार है उसी के अनुरूप दहेज भी बहुत ला रही थी। अब तो बाऊजी के पास भी बहुत पैसा है उनसे किसी बात में उन्नीस नहीं हैं। बहू के चढ़ावे में गहने भी देखने लायक थे। इसीलिए इस शादी पर बाकी  तीन बहुओं को भी भारी भारी सैट बनवा दिए गए थे। सजी धजी बीरो के भी खुशी के मारे ज़मीन पर पाँव नहीं टिक रहे हैं।

कभी वो भी दिन थे जवानी के......जब कपड़े के थान के गठ्ठर साईकिल पर रखकर धनपत घर घर जाकर कपड़ा बेचता था। बीरो से ब्याह करते ही

Sunday, October 21, 2012

फिर आना


















पतले शीशों की ऐनक में शाम का सूरज ढल रहा था। संध्या की लालिमा में घुल कर उसका साँवला चेहरा ताम्बई होने लगा। कस कर बनाए गए जूड़े से निकल कर बालों की एक लट हवा से शरारतें कर रही थी। अपनी देह पर घटते इन परिवर्तनों के प्रति निर्विकार-सी बनी वह पार्क की बेंच के सहारे मूर्तिवत टिकी हुई थी।
बरसों बाद की मुलाकात का कोई उछाह उसके चेहरे पर दर्ज नहीं हो पाया। आठ सालों बाद अचानक वह मुझे इस पार्क में मिली और पिछले चालीस मिनटों से हम साथ है। इस दौरान उसने मुझे सिर्फ पहचाना भर है। यह उसकी बहुत पुरानी आदत है, जान कर भी अनजान बने रहना।
'अब चलें?' उसके होठों से झरने वाली किसी शब्द की प्रतीक्षा में खुद को अधीर पाकर मैंने कहा। अपने से बातें करते रहने की उसकी यह अदा कभी मुझे बहुत रिझाती थी। आज सालों बाद यही अदा झेल पाना कितना मुश्किल लग रहा है।
'हूँ', चिहुँक कर उसने आँखें खोली-'तुमने कुछ कहा मनु?' आँखें बंद किए-किए वह जाने किन रास्तों पर निकल पड़ी थी। जी चाहा कि उससे पूछू कि इन अंधी यात्राओं से मैंने पहले भी कभी तुम्हें लौटा लाना चाहा था तब तुमने मेरी पुकार को क्यों अनसुना किया। मन हुआ कि उससे पिछले आठ सालों का हिसाब माँगू। पर मेरे मुँह से बस इतना ही निकला, 'अँधेरा घिरने लगा है, अभी कुछ देर और रूकोगी?'
'नहीं, अँधेरे में लौट पाना मुश्किल होगा।' उसने कहा और आँचल समेटते हुए उठ खड़ी हुई।
'मैं छोड़ दूँ?' साथ छूट जाने की कल्पना से डर कर मैंने पूछा, बिना यह जाने कि अभी तक उसने अपना पता-ठिकाना बताया ही कहाँ था। उसने एक पल सोचा, फिर सहमति में गर्दन हिलाती बोली- 'चलो, यहाँ से थोड़ा ही दूर है।'
'तुम रोज यहाँ आती हो?' दो कदमों के फासले से चलते हुए मैंने पूछा।
'हाँ, अक्सर', जवाब संक्षिप्त था।
'मैंने सोचा भी न था कि यहाँ तुमसे मुलाकात होगी', बात बढ़ाने की गरज से मैंने कहा- 'मैं ऑफिस से घर लौट रहा था कि कार खराब हो गई। यहाँ पार्क के पास एक गैराज है। मैकेनिक ने बताया कि गाड़ी ठीक होने में दो घंटे लगेंगे। वक्त काटने के लिए पार्क से अच्छी जगह और क्या हो सकती है?' कहते हुए मेरी आँखें अर्थपूर्ण हो उठीं।
'क्या कर रहे हो आजकल?' एकाएक बात बदलने की गरज से उसने निरी औपचारिकता से पूछा।
'तुम्हारा इंतजार', अचानक मेरे मुँह से निकल गया। अपनी रफ्तार में बढ़ते उसके कदम ठिठके और निगाहें मेरे चेहरे पर आ टिकी। उन आँखों में न कोई प्रश्र था और न कोई हैरानी। नजरों की उस ताब से घबरा कर बात सँभालते हुए मैंने कहा- 'मेरा मतलब है कई सालों से मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में बाहर रहा। इस बीच तुम्हारी, सबकी याद भी आती रही। पिछले एक साल से इसी शहर में हूँ। एक मार्केटिंग कंपनी में सीनियर सैल्स मैनेजर।' एक साँस में अपनी बात खत्म करते हुए मैंने पूछा, 'और तुम?'
'शादीशुदा हूँ।' अपनी जगह से हिले बिना उसने जवाब दिया।
'अरे, उससे क्या फर्क पड़ता है, मर्द बच्चा हूँ, प्रेम में सब झेल जाऊँगा।' मैंने ठहाका लगाकर हँसने की कोशिश की।
'अच्छा! आओ, तुम्हें भी मिलवाऊँ।' उसने कहा। वह एक चौराहा था, जहाँ हम खड़े थे।
ठिठके कदम पास की पुरानी इमारत की बढ़ गए। मैं चुपचाप उसके पीछे हो लिया। लम्बी और घुमावदार बारहादरियों से होते हुए अब हम रुक गए थे। टूटे दरवाजे को एक ओर खिसका कर उसने भीतर जाने का रास्ता किया। हवा में फैली सीलन की गंध से घबरा कर मेरा रूमाल नाक पर आ गया था। उसका ख्याल आते ही मेरे मुँह से सफाई निकली, 'नमी की महक से मुझे एलर्जी है।'
'अच्छा, कब से?', मुझे लगा उसकी मुस्कान में कोई व्यंग्य छिपा हुआ है। मुझसे जवाब देते नहीं बना अलबत्ता मेरी नाक पर रखा रूमाल खुद-ब-खुद हट गया था। मीता को तो पता ही था कि सालों तक मेरी महत्वाकांक्षाएँ ऐसी ही एक अंधेरी और बदबूदार कोठरी में कैद थी। दूर के एक रिश्तेदार से विरासत में मिली दौलत ने मुझे इस कैद से निजात दिलवाते हुए मुझे रातों-रात लखपति बना दिया। पैसे के बल पर मेरी महत्वाकांक्षाएँ उड़ान भरने लगी। मीता के पिता भी शहर के रईसों में गिने जाते थे। मीता से बात करके हमेशा मुझे अच्छा लगता था।
'विभु, देखो तुमसे मिलने कौन आया है?', मीता ने पुकारा और जवाब में खाँसी की एक तेज लहर कमरे में गूँज उठी।
'आओ', उसने कहा और मैं यंत्रवत सा उसके पीछे चलने लगा। ईंटों के सहारे टिके पलंग पर लेटा वह शख्स बुरी तरह खाँस रहा था। तिपाई पर पड़े जग से मीता ने एक गिलास में पानी ढाला और उसके होठों से छुआ दिया। अपना काम खत्म करने के बाद वह मेरी ओर मुड़ी, 'तुम्हें भी तो प्यास लग आई होगी मनु?'
'मनु', मेरा नाम सुनकर करवट बदलता वह शख्स अब एकदम मेरे सामने हो गया था, 'यह तुम हो मनीष?'
चेहरा हालाँकि दाढ़ी-मूछों में घिर गया था लेकिन इस आवाज को मैं लाखों की भीड़ में भी पहचान सकता था। यह विभांशु था, कॉलेज का हमारा सहपाठी और मंच पर अपनी बुलंद आवाज से छा जाने वाला एक जबरदस्त कवि। मीता अक्सर उसकी कविताओं की तारीफें करती थी और मैं चिढ़ता रहा था तो उसकी फकीरी से।
'अच्छा हुआ तुम आ गए यार!' कहते हुए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। उसका सुता हुआ चेहरा देखकर मेरी हिम्मत उसका हाथ थामने की नहीं हुई।
'अस्थमा छूत से नहीं फैलता!' मेरी ओर अपलक झाँकते हुए मीता ने सर्द लहजे में कहा। अपनी हड़बड़ाहट को छुपाने के प्रयास में मैंने एक बनावटी ठहाका लगाया और विभांशु का हाथ कस कर थाम लिया।
'मीता की बात पर मत जाना' मुस्कुराने की भरसक कोशिश करते हुए विभांशु ने कहा- वैसे भी एक बिगड़ा अस्थमा ही तो मुझे है नहीं, साथ में कई छोटी-मोटी बीमारियाँ भी बोनस में मिली हुई है।'
'तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे विभांशु!' सांत्वना के अंदाज में मैंने उसका हाथ थपथपाया।
'वह तो होना ही है', उसने कहा जैसे उसे किसी सांत्वना की आवश्यकता ही नहीं थी। 'डेढ़ साल से ही तो तो बिस्तर पर हूँ वरना तो अपना इंकलाब बुलंद ही था। मीता ही अब अपनी झंडाबरदार है।'
'खाट पकड़ कर बैठे हो पर कविताई गई नहीं तुम्हारी!' मीता ने एक मीठी झिडक़ी दी और रसोई की ओर बढ़ गई।
'कहो कहाँ रहे इतने साल?' विभांशु पूरी तसल्ली के साथ मुझसे मुखाबित हो गया। मैंने अपनी व्यस्तता से लेकर मीता से मुलाकात तक के सारे किस्से को चंद पंक्तियों में समेटने की कोशिश की। विभांशु जैसे मेरी बात खत्म होने के इंतजार में था - 'शादी बनाई?'
मेरा सिर इंकार में हिल गया और निगाहें रसोई की ओर। मीता का दिखना अब पूरी तरह बंद हो गया था।
'हाँ, मीता जैसी लड़की हो तभी शादी का कोई मतलब है?'  एकाएक कही गई उस बात ने मेरी चोर निगाहों को लौटने पर मजबूर कर दिया था। ऐसा क्या था उस फक्कड़ विभांशु में जिसके लिए मीता ने अपनी अमीरी और मेरे जज्बात को ठुकरा दिया।
'मैंने उसे अपने से जुड़ी हर बात बताई थी', विभांशु जैसे मेरा मन पढ़ रहा था। 'मीता से मैंने कहा था कि चंद कविताओं के अलावा मेरा कोई नहीं। माँ अपना अस्थमा मुझे सौंप कर मर चुकी थी। पिता ने अपना दूसरा परिवार बसाने की खुशी में अपने से दूर डेढ़ कमरों का यह घर तोहफे में दिया था। कॉलेज की पढ़ाई और पेट की लड़ाई लड़ने के लिए मैं एक अखबार में बतौर प्रूफ रीडर काम कर रहा था।' कहते-कहते उसने एक गहरी साँस ली।
'पर मीता तो सब जान कर भी अनजान बनी रही, नतीजा तुम्हारे सामने है। अब डेढ़ सालों से बेकार पड़ा हूँ, शरीर जैसे गल गया है, मीता ने ही घर और बाहर सँभाल रखा है, कहते हुए उसकी आँखें मुँदने लगी। मैं घबरा कर उठ खड़ा हुआ।
'सुनो', एकाएक उसकी पलकें ऊपर उठीं - 'मेरे बाद मीता का ख्याल रख सकोगे। जानता हूँ तुम उससे प्यार करते हो।' किसी अदृश्य ताकत ने मेरी गर्दन सहमति में हिलाई।
चाय के दौरान विभांशु ठहाके लगाता रहा और उसके इसरार पर मीता ने उसकी कई कवितायें सुनाईं। लौटते समय मीता मुझे छोड़ने दरवाजे तक आई। 'कितना खुश था न विभु?'  उसने चहकते हुए कहा, 'किसी रोज उसकी कविताएँ खुद उसके मुँह से सुनना, बहुत अच्छा लगेगा। मैंने सहमति में सिर हिलाया और लौट पड़ा। चौराहे पर मोड़ काटते ही पता नहीं क्यों मैं अँधाधुँध भाग खड़ा हुआ। किसी के आखिरी शब्द मेरा पीछा कर रहे थे -'फिर आना!'


(अमित पुरोहित)

Thursday, October 18, 2012

Toba Tek Singh ...................टोबा टेक सिंह




















बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़्लाक़ी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए। मालूम नहीं, यह बात माक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले के लिए एक दिन मुक़र्रर हो गया।

अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए, जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस की हिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए।

उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं।

एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथ “ज़मींदार” पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा, “मौलवी साब, यह पाकिस्तान क्या होता है?” तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया, “हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं।” यह जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।

इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा, “सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है। हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती।”

Woh Pal.........................वो पल





























बंद करके रख दिए
वो पल वो शब्द
वो वाकये जो आह्लादित
मलय की सुगंध देते थे ,
मन की तिजौरी में,
और वक़्त की बांह पकड़े
उड़ चली कल्पना लोक में
सोचा जब थक जाऊं
मन वितृष्णा  से भर जाए
विरक्ति अपने पंजे में
जकड़ने लगे
गमों   के बादल
आँखों में बसेरा कर लें
जीवन आख्याति
समापन का रुख करे
तब खोल दूंगी ये तिजौरी
और लम्बा श्वांस
लेकर आत्मसात कर लूँगी
इस सुगंध को
नव्य जीवन की ऊर्जा  हेतु !!

( राजेश कुमारी )

Photo credit 
Max Gasparini



Monday, October 15, 2012

Woh acha hai to acha hai...
























Woh acha hai to acha hai, bura hai ,to bhi acha hai
mizaaj-e-Ishq mein Aieb-e-yaar dekhe nahi jaate.


वो अच्छा है तो ,अच्छा है...बुरा है, तो भी अच्छा है"
"मिज़ाज-ए-इश्क में,  ऐब-ए-यार देखे नहीं जाते...


(Aieb-E-Yaar: Weaknesses of a friend)


Munawwar Rana 

Art Credit: Arti Chauhan

Wo bachpan ki neend to ...वो बचपन की नींद






















वो बचपन की नींद तो अब ख्वाब हो गयी...
क्या उम्र थी... के रात हुई... और सो गए...

Wo bachpan ki neend to ab khawab ho gayi,
Kya umer thi... ke raat huyi... aur so gaye.......



Munawwar Rana 

Art Credit : Valadimir Velogov

Sab Khasaaron ko Jama Karke......सब ख़सारों को जमा करके...





























Sab Khasaaron ko Jamaa Karke, Ye Haasil Niklaa,
Dil-e-Nadaan Ki Koi Baat , na Maani Jaaye……!

(khasaaron;losses)

सब ख़सारों को जमा करके, ये हासिल निकला
दिल-ए-नादाँ की कोई बात , न मानी जाए....


Altaf Hussain Hali

Art Credit: Jose Royo

Search This Blog