कितने सुन्दर भाव है इस कविता में, जिसमें ऊँचाई पर पहुंचकर खुद में अहंकार न पैदा होने देने की बात कही गयी है ............... (a Poem by Atal Bihari Vajpayi)
ऊँचे पहाड़ पर
पेड़ नहीं लगते
पौधे नहीं उगते
न घास ही जमती है
जमती है सिर्फ बर्फ
जो कफ़न की तरह सफ़ेद और
मौत की तरह ठंडी होती है
खेलती , खिलखिलाती नदी
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है
ऐसी ऊँचाई
जिसका परस (स्पर्श)
पानी को पत्थर कर दे
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
अभिनन्दन की अधिकारी है
आरोहियों के लिए आमंत्रण है
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं
किन्तु गौरैया
वहां नीड़ नहीं बना सकती
न को थका-मांदा बटोही
उसकी छाँव में पल भाल पलक ही झपका सकता है
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती
सबसे अलग-थलग
परिवेश से पृथक
अपनों से कटा बंटा
शून्य में अकेला खड़ा होना
पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है
जो जितना ऊँचा
उतना एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ढोता है
चेहरे पर मुस्कान चिपका
मन ही मन रोता है
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो
जिससे मनुष्य
ठूंठ सा खड़ा न रहे
औरों से घुले-मिले
किसी को साथ ले
किसी के संग चले ,
भीड़ में खो जाना
यादों में डूब जाना
स्वयं को भूल जाना
अस्तित्व को अर्थ
जीवन को सुगंध देता है
धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की ज़रुरत है
इतने ऊँचे के आसमान छू लें
नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे
कोई काँटा न चुभे
कोई कली न खिले
न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा
मेरे प्रभु
इतनी ऊँचाई कभी मत देना
के गैरों के गले न लग सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।
ऊँचे पहाड़ पर
पेड़ नहीं लगते
पौधे नहीं उगते
न घास ही जमती है
जमती है सिर्फ बर्फ
जो कफ़न की तरह सफ़ेद और
मौत की तरह ठंडी होती है
खेलती , खिलखिलाती नदी
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है
ऐसी ऊँचाई
जिसका परस (स्पर्श)
पानी को पत्थर कर दे
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
अभिनन्दन की अधिकारी है
आरोहियों के लिए आमंत्रण है
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं
किन्तु गौरैया
वहां नीड़ नहीं बना सकती
न को थका-मांदा बटोही
उसकी छाँव में पल भाल पलक ही झपका सकता है
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती
सबसे अलग-थलग
परिवेश से पृथक
अपनों से कटा बंटा
शून्य में अकेला खड़ा होना
पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है
जो जितना ऊँचा
उतना एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ढोता है
चेहरे पर मुस्कान चिपका
मन ही मन रोता है
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो
जिससे मनुष्य
ठूंठ सा खड़ा न रहे
औरों से घुले-मिले
किसी को साथ ले
किसी के संग चले ,
भीड़ में खो जाना
यादों में डूब जाना
स्वयं को भूल जाना
अस्तित्व को अर्थ
जीवन को सुगंध देता है
धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की ज़रुरत है
इतने ऊँचे के आसमान छू लें
नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे
कोई काँटा न चुभे
कोई कली न खिले
न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा
मेरे प्रभु
इतनी ऊँचाई कभी मत देना
के गैरों के गले न लग सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।