असंभव !
यह हो ही नहीं सकता।
इतना पागल कोई नहीं होता।
कोई अपनी लगी-लगाई नौकरी भी छोड़ता है क्या?
आकाश से बिजली टूट कर पर्वत की शिलाओं को दरका जाती होगी, तो ऐसा ही होता होगा। ज्वालामुखी फूटकर अपना लावा पृथ्वी के तल पर बहाता होगा तो पृथ्वी के वक्ष पर भी ऐसे ही फफोले पड़ जाते होंगे। समुद्र की लहरें जल का पहाड़ लेकर आती होंगी तो तट की रेत पर इसी प्रकार पछाड़ खा कर गिरती होंगी, जैसे आज उसका मन अपना सिर पटक-पटक कर रो रहा था ...
दामिनी स्कूल के दिनों से ही उनकी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ा करती थी। वह बिना जाने ही कि उसके अपने मन में भी कुछ लिखने
की विकट आकांक्षा थी, उनकी पुस्तकें पढ़ कर वैसा ही कुछ लिखने का प्रयत्न करती थी। ...
की विकट आकांक्षा थी, उनकी पुस्तकें पढ़ कर वैसा ही कुछ लिखने का प्रयत्न करती थी। ...
तब वे उसके लिए केवल एक 'नाम' थे। उनकी पुस्तकों पर छपे परिचय से ही ज्ञात हुआ था कि वे एक कॉलेज में अध्यापक थे। पगलाया मन सोचा करता था, वह उनके समान लिख नहीं सकती, उनसे पढ़ तो सकती है। और उसकी आत्मा थी कि लपक कर, कुलांचें मारती हुई, उनके कॉलेज तक पहुँच जाना चाहती थी। ... पहुँच भी गई। परेशानी क्या थी। स्कूल के पश्चात् उस कॉलेज में नाम लिखा लिया, जहाँ वे पढ़ाते थे। कॉलेज में पढ़ाते थे तो समय आने पर उसकी कक्षा को भी पढ़ाएँगे ही।
वे प्रथम वर्ष की कोई कक्षा नहीं लेते थे; किंतु उसके कितने निकट थे। वरांडे में आस-पास से गुज़रते हुए, अगल-बगल के कमरों में पढ़ाते हुए, विभागीय उत्सवों में बोलते हुए, वह उन्हें देख और सुन सकती थी। उनकी टिप्पणियों को देख-सुन कर, उसकी आत्मा निरंतर हिचकोले खाती रहती थी।
फिर वह अपनी आत्मा को रोक नहीं सकी। सड़क की लाल बत्ती तक तो उसकी आत्मा को रोक नहीं सकी थी। कॉलेज की कक्षाएँ और सैक्शन क्या करते ... एक दिन अपनी लिखी एक कहानी उन्हें थमा ही दी, “सर, आप यह कहानी देख लेंगे?”
“दो-तीन दिन बाद मिलना।” उन्होंने निर्विकार भाव से कहानी थाम ली।
दूसरे दिन से ही दामिनी उनके आस-पास मंडराने लगी, जैसे गली के लुच्चे कच्चील उम्र की लड़कियों के आसपास मंडराते हैं। पर सर के आसपास मंडराने में वैसा कोई संकट नहीं था।
“क्यों मंडराती है?” आत्मा ने पूछा भी, “कहीं कोई रोमांस का चक्कर तो नहीं?”
“धत् पगली।” “ तो?” “शायद उन्होंने मेरी कहानी पढ़ ली हो।...”
“पढ़ लेंगे तो अपने आप बुलाएँगे।” आत्मा ने कहा।
“बुलाएँगे तो चली जाऊँगी।” वह बोली, “मंडराऊँगी नहीं।” उसने आत्मा को भी अँगूठा दिखा दिया।
कहती कुछ नहीं। बस सामने से आकर नमस्ते कर जाती। अपना चेहरा दिखा जाती।... शायद वे उसे बुला कर उसकी और उसकी कहानी की प्रशंसा करना चाहें। ... तो वह उनको निराश क्यों करे ...
उनको तो अवसर दे रही थी कि वे उसे बुला लें; किंतु स्वयं उन्हें बुलाने का साहस कभी नहीं कर पाई। मस्तिष्क ने मन को डाँटा, 'उन्हें और कोई काम नहीं है क्या कि तुम्हारी कहानी लेते ही पढ़ने बैठ गए होंगे? यदि पढ़ भी ली हो और उन्हें अच्छी न लगी हो तो ...? बुला कर क्या कहेंगे, 'अरी ओ खराब कहानियाँ लिखने वाली लड़की ! आ बैठ और अपनी निन्दा सुन।'
चौथे-पाँचवे दिन उसे उनका संदेश मिला, “दामिनी से कहो, आकर अपनी कहानी ले जाए।”
कहाँ तो वह इतनी उत्सुक थी, उनसे पूछने के लिए; और कहाँ संदेश पाकर जान निकल गई। लगा, वह तो वरांडे के एक छोर पर खड़ी है और उसकी आत्मा उसका शरीर छोड़ कर वरांडे के दूसरे छोर पर जा खड़ी हुई है ... डाँट पड़े तो दामिनी को पड़े, आत्मा को न पड़े।
भगवान् जाने, स्वभाव कैसा है। कठोर हैं या सेमल की रूई हैं। डाँटेंगे तो नहीं? अध्यापक हैं तो डाँटते ही होंगे। अध्यापक का काम क्या है -- डाँटना। डाँटने का ही तो वेतन मिलता है अध्यापकों को।... ठीक है, वे उसे अच्छे लगते हैं। जाड़े में सूर्य का ताप किसे अच्छा नहीं लगता; किंतु कोई सूर्य के सम्मुख बैठ कर तपना तो नहीं चाहता। ... वह उनके विषय में इतना कम जानती थी। ... ओह ! कैसी मुसीबत मोल ली। भय था कि मन के कंधों पर चढ़ा बैठा था; और उस गरीब के कंठ को दबाए जा रहा था। त्रस्त हो उठी बेचारी दामिनी ! पर सोचा, जब ऊखल में सिर दे ही दिया है तो मूसल का क्या भय? चल दामिनी ! मूसल का स्वाद चख ले।
वह मन में आशंकाओं का बवंडर लिए स्टाफ-रूम की ओर चली। श्मशानी कविता की शैली में कहें तो वह कंधे पर अपनी सलीब लेकर चल रही थी। एक बार तो द्वार तक जाकर भी लौट आई। कौन सलीब पर लटक कर अपने शरीर में कील ठुकवाए !
“लेखिका बनना है या नहीं?” आत्मा ने पूछा।
“बनना तो है।”
“तो चल, फिर चढ़ जा सूली पर।”
वह सूली चढ़ गई। हिम्मत कर, उनके सामने जा खड़ी हुई। उनके निकट खड़े होने मात्र से उसे पसीना आ गया। सारा पर्फ्यूम धुल गया। सूर्य के निकट जाओ तो पसीना नहीं आएगा क्या ! शुक्र है आग नहीं लगी।
“सर, मेरी कहानी ...”
“तुम दामिनी हो?”
आत्मा चहकी। बोली, “पूछ, आपको क्या लगती हूँ?”
उसने आत्मा की बात नहीं मानी। बोली, “हाँ सर।”
“बैठो।”
बैठ गई, उनकी साथ वाली कुर्सी पर। आत्मा मुस्कराई, “तू तो चरणों में बैठने वाली थी।”
“चुप बेशरम। अब यहाँ स्टाफरूम में फर्श पर बैठी अच्छी लगूँगी क्या?” उसने आत्मा को झिड़क दिया -- हर समय आकर कंधे पर बैठ जाती है। शोरमचावन कौए के समान कांव-कांव करने लगती है। कंधा न हुआ, किसी विरहिणी की मुंडेर हो गई।
“मैंने तुम्हारी कहानी पढ़ ली है। यह तो अच्छी है ही, पर तुम्हारी इच्छा हो तो तुम और अच्छा लिख सकती हो।” वे बोले, “अच्छे लेखकों की रचनाएँ पढ़ा करो। तुम्हारा शब्दज्ञान और कल्पना-शक्ति बढ़ेगी, प्रतिभा का विकास होगा।”
इसके पश्चात् डॉ.सिद्धार्थ ने उसकी कहानी की कमियाँ बताईं। यदि उन्होंने पहले ही उसकी पीठ ठोक कर आश्वस्त न कर दिया होता तो कहानी की इतनी त्रुटियाँ सुनकर उसके कंधे पर पालतू कौए के समान बैठी आत्मा उड़ गई होती और वह कहानी के चिथड़े-चिथड़े कर पैर पटकती हुई स्टाफ रूम से लौट आई होती। किंतु अब उसे लग रहा था, कोई उसकी निंदा नहीं कर रहा, वरन् उसके लिए उत्कृष्ट लेखन के संभावित द्वार खोल रहा था। आत्मा पर मानों सावन की घटाएँ झूमने लगी थीं।
आत्मा इतनी प्रभावित हुई कि आश्चर्य से आँखें फाड़ उन्हें देखती ही रह गई। ... क्या ये ही डॉ. सिद्धार्थ हैं, जिनका नाम साहित्य जगत् में हर व्यक्ति जानता है? इनके भय से तो आत्मा जाने कितनी बार कॉलेज की छत से छलांगें लगा कर आत्महत्या कर चुकी थी। पर आत्मा मरती थोड़ी है। वह भी नहीं मरी। अब उनके गुणों के विषय में सोच सोच कर मरी जा रही है। ...उनके स्नेह से छलकते बोल और स्नेह भरी दृष्टि बता रही थी कि कॉलेज के ये तीन वर्ष विद्यार्थियों के लिए अत्यंत सुखद और अविस्मरणीय साबित होंगे।
ये सारे छात्र उनसे फेवीकोल लगा कर क्यों चिपक गए हैं। जिसे देखो, उनसे प्यार जता रहा है। किसी को अपनी लिखी कहानी के लिए मार्ग-दर्शन चाहिए था; किसी को छपने का रहस्य जानना था; किसी को कविता की कुछ पंक्तियों का अर्थ समझना था; किसी को अपना ट्यूटोरियल जंचवाना था। सब बहानेबाजी थी, उनको घेरे रखने की। दामिनी को अच्छा नहीं लगता था।... आत्मा तड़पती रहती थी, जल -जल कर कोयला होती रहती -- क्यों घेरे रहते हैं सब लोग। कालेज में और अध्यापक भी तो हैं, सबको डॉ. सिद्धार्थ से ही क्यों चिपकना होता है। दामिनी को उनसे बात करनी थी, पर इस मेले में क्या बात होगी।
आत्मा सोचती, कितने अध्यापकों से संपर्क हुआ है ; पर डॉ.सिद्धार्थ सबसे भिन्न हैं। विज्ञापन की भाषा में सोचती तो कहती - एक्लूसिव ! अच्छे बनने की शिक्षा तो सभी देते हैं, पर क्या वे स्वयं अपनी दी हुई शिक्षा के अनुरूप बनकर दिखाते हैं? गुड़ छोड़ने को तो सब कहते हैं किंतु स्वयं गुड़ छोड़ते हैं क्या? डॉ.सिद्धार्थ ने तो लगता था, गुड़ कब का छोड़ रखा था।
दामिनी को धीरे-धीरे पिछली बातें याद आने लगीं। ...
प्रेषिता ने कॉलेज की क्यारी से गुलाब का एक फूल तोड़ लिया था।
“इसे डॉ.सिद्धार्थ को देंगे।”
“किसी पुरुष को गुलाब का फूल देने का अर्थ समझती है न?”
“समझती हूँ, पर तू मंदिर में भगवान् की प्रतिमा के चरणों में पुष्प अर्पित करने का अर्थ समझती हे न?”
“समझती हूँ।”
दोनों बड़ी प्रसन्न ! पहुँचीं उनके पास।
“सर ! आपके लिए।”
डॉ.सिद्धार्थ ने हाथ नहीं बढ़ाया।
“कॉलेज की क्यारी से तोड़ा है?”
“हाँ सर ! बस आपके लिए।”
“यह फूल तुम्हारा था क्या?”
“नहीं सर, कॉलेज का था। पर कॉलेज भी तो हमारा ही है।” चंचल प्रेषिता इठलाई।
“कॉलेज हमारा है, पर सामूहिक रूप से।” वे बोले, “वह हमारी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है।”
“तो सर?”
“समूह की संपत्ति को व्यक्ति ने अपने लिए हथिया लिया, “ वे बोले, “वहीं से चोरी का आरंभ होता है।”
प्रेषिता की सारी चंचलता हवा हो गई। पानी-पानी हो गई बेचारी। धरती फट जाती ...
वे चले गए।
“तौबा मेरी तौबा।” प्रेषिता ने अपने गाल थपथपाए, “अब तो अपने बाग से भी फूल नहीं तोड़ूँगी।”
***
वे पानी पीने कूलर की ओर जा रही थीं। अकस्मात प्रेषिता के पैरों से कोई चीज टकराई। देखा - एक सुंदर सा लैटरपैड था। उसमें एक ताजा गुलाब महक रहा था। शायद किसी का उपहार गिर गया था। प्रेषिता ने उसे उठा लिया।
“पैड अच्छा है न दामिनी?”
“अच्छा तो है।”
“चाहिए?” उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी।
“जो चीज मेरी नहीं है, उसे मैं नहीं लेती।” न चाहते हुए भी दामिनी के स्वर में कटुता आ ही गई थी।
“अच्छा !” उन्मुक्त भाव से हँस दी प्रेषिता, “आओ, ऑफिस में चलते हैं।”
उसने वह पैड जमा करा दिया, “इसे रख लें। हमें मैदान में पड़ा हुआ मिला है। कोई पूछने आए तो उसे दे दें।”
दामिनी आश्चर्य से उसे देखती रह गई : यह लड़की तो बदल गई । किसने बदल दिया?...
“जमा क्यों करा दिया?” दामिनी ने पूछा, “अच्छा था, तुम्हें पड़ा हुआ मिला था। तुमने किसी से छीना नहीं था। कहीं से चुराया नहीं था। रख लेतीं।”
“जो चीज मेरी नहीं, उसपर मेरा क्या अधिकार।”
“तो मुझसे लेने के लिए क्यों पूछा था?”
“ परख रही थी।” वह खिलखिला पड़ी।
“प्रेषिता, सारे मनुष्य डॉ. सिद्धार्थ जैसे क्यों नहीं होते?”
“डॉ. सिद्धार्थ से पूछ कर बताऊँगी।”
दोनों हँस पड़ी थीं।
***
नवागत छात्रों के लिए स्वागत-समारोह था, ग्यारह बजे से ! साढ़े ग्यारह बज गए; परंतु समारोह आरंभ नहीं हुआ।
“तुम्हारा कार्यक्रम कब आरंभ होगा?” आखिर डॉ. सिद्धार्थ को कहना ही पड़ा।
“सर, बस अभी थोड़ी देर में शुरू कर रहे हैं।”
“समय का पालन क्यों नहीं करते तुम लोग?”
“सर, इंडियन स्टैंडर्ड टाईम।” मैत्रेयी खिलखिला कर बोली।
“गलत परंपराओं को बढ़ावा तुम दो, कार्यक्रम में विलंब तुम करो और कलंकित करो सारे देश को। अपना दोष क्यों स्वीकार नहीं करते?”
मैत्रेयी चुप ! शेष लोग सन्न !
“देश के सम्मान के साथ मज़ाक नहीं करते।” डॉ. सिद्धार्थ ने प्यार से कहा।
वे पहला पीरियड लेते थे - प्रात: नौ बजे। ठीक नौ बजे कक्षा में उपस्थित होते थे। इधर यूनिवर्सिटी स्पेशल हो या डी. टी. सी. - छात्रों को देर हो ही जाती थी।
कुछ दिन तो वे देखते रहे। फिर बोले, “हमारे देश की प्राचीन परंपरा थी कि शिष्य बैठे होते थे। तब गुरु आते थे। शिष्य खड़े होकर उनका स्वागत करते थे। उन्हें प्रणाम करते थे। अब हम आधुनिक हो गए हैं। गुरु पहले से आ कर बैठ जाते हैं। खिड़कियाँ दरवाज़े खोलते हैं। मेज़ कुर्सियाँ झाड़ते हैं। तब शिष्य पधारते हैं। गुरु उठ कर उनका स्वागत करते हैं। उनका धन्यवाद करते हैं कि वे कक्षा में आए तो। न आते तो गुरु क्या कर लेते।”
अगले दिन स्वयं डॉ. सिद्धार्थ चकित !
“वाह ! वाह ! क्या बात है, आज तो तुम में से एक भी विलंब से नहीं आया। भारत की प्राचीन परंपरा सीख रहे हो तुम लोग।”
* * *
परीक्षाफल निकला था। डॉ. सिद्धार्थ प्रत्येक छात्र के प्राप्त अंक पूछ रहे थे।
“निष्ठा, अंक कैसे हैं?”
“सर, अच्छे हैं। बासठ प्रतिशत हैं।” निष्ठा बोली।
“अच्छे कहाँ हैं। कम से कम पैंसठ प्रतिशत होने चाहिए थे।” वे बोले, “इतना आत्म तोष भी अच्छा नहीं कि महत्वाकांक्षाओं का अस्तित्व ही न रहे।”
निष्ठा मौन। वह कम में ही संतुष्ट थी; किंतु डॉ. सिद्धार्थ नहीं। उनकी अपेक्षा और अधिक की थी। अंक कम ही थे। उसे और श्रम करना चाहिए।
दामिनी ने अपनी कहानी के विषय में पूछा, “सर, कहानी अच्छी है न !”
“नहीं है तो बन जाएगी, “ कुछ क्षण रुक-कर वे बोले, “गुरु अपने शिष्य के सम्मुख सदा एक सीढ़ी ऊपर खड़ा होता है। यदि शिष्य पाँचवीं सीढ़ी पर होगा तो गुरु छठी सीढ़ी पर पहुँचकर कहेगा, और आगे बढ़ो। शिष्य दसवीं सीढ़ी पर होगा, तो गुरु ग्यारहवीं पर से कहेगा -- आओ, ऊपर आओ। यदि मैं कह दूँ कि कहानी बहुत अच्छी है तो तुम्हें स्वयं पर गर्व होगा और तुम्हारी प्रतिभा का विकास रुक जाएगा।”
** *
आज रह-रहकर पिछली बातें याद आ रही थीं।
“सर हिंदी का प्रचार-प्रसार करते समय लोग अंग्रेज़ी के बहिष्कार की बात करते हैं। क्या यह उचित है? इससे तो हमारा भविष्य प्रभावित होगा। अंग्रेज़ी नहीं आएगी तो लोग हमें अनपढ़ मानेंगे।”
“विभिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना अनुचित नहीं है।” उन्होंने कहा था, “मात्र हिंदी के विद्वान् बनकर तो हम कूपमंडूक बन जाएँगे। पर अपनी भाषा में पूर्ण दक्षता प्राप्त किए बिना दूसरी भाषा सीखना भी समझदारी नहीं है। विरोध अंग्रेज़ी-ग्रहण का नहीं, हिंदी के त्याग का होना चाहिए।”
वे बोलते तो अपनी भाषा को दूसरी भाषाओं के शब्दों के मिश्रण से दूषित नहीं करते थे। डॉ. अग्रवाल भी प्राय: हिंदी में पूर्ण दक्षता प्राप्त करने का उपदेश देते थे।
किंतु उस दिन तृप्ति ने डॉ. अग्रवाल से कहा, “सर, इस चैप्टर में इस पद्य को छोड़कर अन्य कोई इतना डिफिकल्ट नहीं है।”
“तृप्ति, कितनी भ्रष्ट हिंदी बोल रही हो तुम !” अनायास ही संदीप के मुंह से निकल गया था।
“कोई बात नहीं, “ डॉ. अग्रवाल बोले, “यहाँ सिद्धार्थ साहब नहीं हैं।”
“तो?” दामिनी लड़ने लड़ने को हो गई थी।
“इनसे पूछ, हमें भाषा सिखाने आए हैं, या हमारी भाषा बिगाड़ने।” आत्मा ने दामिनी के कान में कहा।
डॉ. अग्रवाल मौन रह गए, नहीं तो वह पूछ ही बैठती।
उनसे यह सब नहीं पूछा तो फिर कभी कुछ और भी नहीं पूछा। वस्तुत: डॉ. अग्रवाल के प्रति किसी के मन में कोई श्रद्धा ही नहीं रह गई थी। जो व्यक्ति डॉ. सिद्धार्थ का सम्मान नहीं करता वह स्वयं भी सम्मान योग्य नहीं है।
* * *
परीक्षा आरंभ होने वाली थी।
डॉ. नंदन वर्ष भर तो कक्षा में आए नहीं थे। अब आए और बोले, “लिखो, लिखो। जो प्रश्न परीक्षा में आएँगे। वे सब लिख लो।”
जो कुछ वे बोले, छात्रों ने अक्षर-अक्षर लिख लिया। इस से अच्छा अवसर और क्या मिलेगा। पूरा का पूरा पर्चा ही लिखा रहे थे।
“इन प्रश्नों के अतिरिक्त और कुछ भी तैयार करने में समय नष्ट मत करना।” वे बोले, “इन प्रश्नों के अलावा शायद ही कोई अन्य प्रश्न परीक्षा में आए।”
सारी कक्षा प्रसन्न ! भिक्षुक को कुबेर का खजाना जो मिल गया था।
परीक्षा आरंभ हुई।
प्रश्नपत्र पर नजर डाली तो पैरों तले से धरती खिसक गई। केवल दो ही प्रश्न कुछ परिचित थे। शेष सब कुछ अनजाना - न पढ़ा न सुना। अब डॉ. नंदन के दर्शन कहाँ होते ! अपनी बुद्धि से जो जैसा कर सकता था, कर आया।
आस्था का पर्चा एकदम ही मटियामेट हो गया था। बहुत रोई बेचारी। कुछ संभली तो सोचा कि अगले पर्चे की सुध ले। अगला पर्चा अभी चार दिन दूर था। वह डॉ. सिद्धार्थ का पर्चा था।
आस्था ने डॉ. सिद्धार्थ को फोन मिलाया, “सर, नमस्ते।”
“नमस्ते। तुम लोगों का पर्चा कैसा हुआ?”
“अच्छा नहीं हुआ सर। सर, कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न बता दीजिए।”
“वर्ष भर क्या किया है मैंने? महत्वहीन चीज़ें पढ़ाता रहा हूँ कि आज महत्वपूर्ण पूछ रही हो। सब कुछ पढ़ो। जो कुछ पढ़ाया है, सब महत्वपूर्ण है।”
उत्तर सुनकर आस्था को फिर से रुलाई आ गई। अब एक सिरे से सब कुछ पढ़ना होगा।
द्वितीय प्रश्नपत्र आरंभ हुआ।
डॉ. सिद्धार्थ ने तो कुछ महत्व पूर्ण बताया ही नहीं था। सारे विद्यार्थी सब कुछ तैयार कर के आए थे। सब कुछ परिचित था। सब आता था। सबका पर्चा प्राय: अच्छा ही हुआ।...
* * *
“सर, ” विद्यार्थियों ने डॉ. सिद्धार्थ को घेर लिया, ”आप कॉलेज क्यों छोड़ रहे हैं?”
“अभी तो आपकी दस वर्षों की नौकरी और है।” दामिनी ने कहा।
“लिखना चाहता हूँ। नौकरी अब संबल नहीं, बंधन हो रही है।”
“सर, हमारी पढ़ाई का क्या होगा?”
“अन्य अध्यापक हैं न ! कोई न कोई तो तुम्हारी क्लास लेगा ही। निराश क्यों हो? मन लगाओ। पढ़ाई हो जाएगी।”
“सर, आप एक वर्ष और रुक नहीं सकते? हमारा थर्ड ईयर हो जाएगा।”
वे हँसे, ”तुम्हारे बाद कोई दूसरा बैच आएगा। आज तुम रोक रहे हो, अगले वर्ष वे रोकेंगे। यह तो अनन्त प्रवाह है जो कभी थमेगा नहीं।”
“सर, आपके बिना हम पढ़ नहीं पाएँगे।”
“पढ़ लोगे। किसी के बिना संसार का कोई काम नहीं रुकता। मैं तो बहुत पहले ही नौकरी छोड़ देता, किंतु परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं।” वे बोले, “ अब नहीं रुक सकता। करने को काम बहुत है और समय बहुत कम है।”
“सर, पहले क्यों रुकना पड़ा?” दामिनी की जिज्ञासा छलक कर बाहर आ गई।
“आजीविका के लिए। अब परिवार के लिए मेरी नौकरी आवश्यक नहीं है।” वे बोले, “ अध्यापन में सुख कम और समय का अपव्यय अधिक है।” “सर, आप सप्ताह में मात्र एक घंटे के लिए आ जाया कीजिए।” निष्ठा ने अनुरोध किया।
“ एक घंटा। सारा दिन निकल जाता है। या शायद उससे भी अधिक।”
“कैसे सर? एक घंटा एक दिन से भी अधिक कैसे हो सकता है?” दामिनी ने तर्क किया, “ऐसे तो सारा गणित झूठा पड़ जाएगा। आप हमें इतना बुद्धू क्यों मानते हैं सर?”
वे हंसे, ”तुम लोग बुद्धू नहीं हो सकते ; किंतु लिखने की प्रक्रिया - सृजन प्रक्रिया - को नहीं समझते। मन लिखने में रमा हुआ हो, तन पढ़ाने में लगा दूँ। न तुम्हारे साथ न्याय होगा, न विषय के साथ। लिखा तो जाएगा ही नहीं।” वे कुछ रुक कर बोले, ”कोई सहायता चाहिए हो, तो मुझसे संपर्क करना। मैं कॉलेज नहीं आऊँगा ; किंतु तुम लोग मेरे पास आ सकते हो।”
“सर, आपको मालूम है कि हम आपसे ही पढ़ाना चाहते हैं, ” दामिनी बोली, ”आपके पढ़ाने में ही हमारा मन रमता है।”
वे मुस्कराए, ”मालूम है। तभी तो पढ़ाता हूँ। तुम्हारा लाभ न हो तो मेरे पढ़ाने का अर्थ ही क्या है।”
“तो फिर आप इतने स्वार्थी क्यों हो रहे हैं सर?” दामिनी का दुस्साहस फन काढ़ कर खड़ा हो गया, ”हमारी हानि कर आप अपने लाभ की सोच रहे हैं।”
आरोप गंभीर था। उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं थी, एक हल्की सी वेदना उभर आई थी, ”मैं अपने विकास के मार्ग में आए प्रलोभनों का मोह छोड़, अपने वास्तविक लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ।”
“आपका विकास?” निष्ठा भी कुछ धृष्ट हो चुकी थी, ”आपका इतना तो विकास हो चुका है। ज्ञान, धन, यश, ख्याति, सम्मान सब कुछ तो आपको मिल रहा है, सर।”
वे रुष्ट नहीं हुए। बोले, ”एक प्रकार से तुम ठीक ही कह रही हो। किंतु विकास का अंत यहीं तो नहीं है। विकास का अर्थ ही है कि जब इन सब तथाकथित उपलब्धियों की व्यर्थता का बोध हो जाए।” वे मुस्कराए, “ मेरी एकाग्रता, मेरा ध्यान, मेरी समाधि, सब कुछ मेरा लेखन है। वह मेरा स्वधर्म है। मुझे उसी में लीन होना है। वह सुख है। शेष सब कुछ विघ्न-स्वरूप है।”
सब शांति से सुनते रहे। दामिनी की उच्छृंखल आत्मा भी नहीं कुसकी। किसी के भी पास न इन सूचनाओं का कोई तोड़ था, न तर्कों का कोई उत्तकर । बस, वियोग की वेदना भर थी।
दामिनी को अनायास ही स्वामी विवेकानंद की याद हो आई। उनके परिवार और निकट बंधुओं की ओर से जब उनसे विवाह करने का आग्रह किया गया तो उन्होंने कहा था, 'मुझे पत्नी नहीं, ईश्वर चाहिए।' उसी ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें अपने पास बुलाया, तो जाना चाहकर भी वे नहीं जा सके। परिवार की परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थीं कि वे घर को छोड़कर जा सकते। पिता का देहांत हो चुका था और परिवार में पेट भरने को अन्न भी नहीं था। ईश्वर को पाने की आकांक्षा मन में रही और विवेकानंद परिवार में रहे। किंतु परिवार के लिए मोटे अन्न और वस्त्र की व्यवस्था होते ही, वे सांसारिकता में एक क्षण भी नहीं रुके। गुरु के पास चले गए। उनका लक्ष्य ईश्वर था। घर-परिवार नहीं, सुख-समृद्धि नहीं।
डॉ. सिद्धार्थ का ईश्वर उनका लेखन था; या लेखन से उन्हें अपना ईश्वर प्राप्त करना था। कुछ भी हो, उनका लक्ष्य उन्हें पुकार रहा था। मार्ग में अटकाने वाली बाधाएँ समाप्त हो गई थीं। कॉलेज और कॉलेज की यह नौकरी उनका लक्ष्य नहीं था।
दामिनी को लगा, सारी गुत्थियाँ सुलझ गई हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर उसे मिल गए हैं।
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