बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़्लाक़ी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए। मालूम नहीं, यह बात माक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले के लिए एक दिन मुक़र्रर हो गया।
अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए, जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस की हिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए।
उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं।
एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथ “ज़मींदार” पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा, “मौलवी साब, यह पाकिस्तान क्या होता है?” तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया, “हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं।” यह जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा, “सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है। हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती।”