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Friday, October 24, 2025

इक दौर था

 इक दौर था वो भी...

हर घर के किसी एक ही कमरे में पड़ा
एक ही टी.वी.
सबका सांझा हुआ करता था 
शाम ढलते ही उमड़ पड़ता 
देखने वालों का जमावड़ा 
सब के सब एक ही जगह ...

Thursday, October 23, 2025

अपेक्षाएं



अपेक्षाएं....
जब प्रेम से....
बड़ी होने लगती हैं.....
तब....
प्रेम... धीरे धीरे....
मरने लगता है....
विश्वास....
घटने.. लगता है.....
प्रेम में तोल-मोल....
जांच-परख....
घर.. कर लेती है.....
तो प्रेम.....

प्रेम ..नहीं रह जाता.....
विश्वास विहीन जीवन....
कब असह्य हो जाता है......
पता ही नहीं चलता....
जब... पता चलता है....
तब तक.....
बहुत देर हो चुकी होती है....
सिर्फ ,पछतावा ही....
शेष ...रह जाता है....
क्योंकि.... प्रेम....
मर ......चुका होता है.....
.
.
Manju Mishra

Photo Credit: Golshifteh Farahani by Paolo Roversi for Vogue Italia September 2014

Sunday, October 12, 2025

कितना होना है.... कितना नहीं


कई लोग... कितना होना है.... कितना नहीं.... के बीच फंसे हैं


धर्म कितना हो... कितना नहीं..... इतना कि वोट मिल जाएं... लोक-परलोक सध जाए

Saturday, September 27, 2025

मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा। Poem By Uday Bhanu Hans | Ashutosh Rana


 

यह कविता 'मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा' हिंदी साहित्य की एक बहुत ही प्रसिद्ध और भावुक कविता है।

यहाँ इस कविता से जुड़ी जानकारी दी गई है:

  • मूल कवि: उदय भानु 'हंस' (Uday Bhanu Hans), जो हरियाणा के पहले राज कवि थे और अपनी रुबाइयों (चार-पंक्ति की कविताएँ) के लिए जाने जाते हैं।

  • प्रसिद्ध वाचक: अभिनेता आशुतोष राणा (Ashutosh Rana) ने अपने खास अंदाज़ और दमदार आवाज़ में इस कविता का पाठ किया है, जिसने इसे नई पीढ़ी के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया है।


कविता का सार (Essence of the Poem)

यह कविता एकतरफ़ा, पूर्ण और निःस्वार्थ प्रेम की अभिव्यक्ति है। कवि अपने महबूब से कहता है कि मैंने तो आपसे प्रेम कर लिया है, अब आप इसे चाहे जो नाम दें:

  • समर्पण का भाव: कवि कहता है कि अब आप मेरे इस प्रेम को चाहे चंचलता कह लें, या दुर्बलता कह लें, लेकिन दिल के मजबूर करने पर मैंने तो आपसे प्रेम कर लिया है।

  • प्रेम की गहराई: कवि कहता है कि यह प्रेम दिए का तेल नहीं है जो दो-चार घड़ी में ख़त्म हो जाए, बल्कि यह तो कृपाण (तलवार) की धारा पर चलने जैसा है, यानी मुश्किलों से भरा हुआ है।

  • अखंड प्रेम: वह खुद को चातक (जो केवल वर्षाजल पीता है) और महबूब को बादल बताता है, खुद को आँसू और महबूब को आँचल बताता है। वह कहता है कि मैंने जो भी रेखा खींची, उसमें आपकी ही तस्वीर बना बैठा।

  • परिचय: वह कहता है कि जब भी किसी ने मेरा परिचय पूछा, मैंने आपका नाम बता बैठा

  • अंतिम गंतव्य: चाहे मैं जीवन के जिस भी रास्ते पर चल निकला, अंत में आपके ही दर पर जा बैठा

यह कविता प्रेम में दीवानगी, संपूर्ण समर्पण और महबूब के प्रति अटूट विश्वास की एक सुंदर मिसाल है।


Sunday, September 14, 2025

एक ज़रा छींक ही दो तुम by Gulzar

एक  ज़रा छींक ही दो तुम 

**********************


चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें


शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या


घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के


औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर


पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो

Tuesday, September 09, 2025

अति की चाह (स्वरचित )

मेरी पहली रचना जिसे मैंने एक कविता प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए लिखा था जिसे बहुत सराहा गया था | 



Friday, December 21, 2012

व्यर्थ नहीं हूँ मैं......




व्यर्थ नहीं हूँ मैं!

जो तुम सिद्ध करने में लगे हो

बल्कि मेरे ही कारण हो तुम अर्थवान

Tuesday, December 18, 2012

पवित्रता



कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर

स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं

Thursday, November 22, 2012

हम हैं संक्रमण काल की औरतें........



हम हैं संक्रमण काल की औरतें

साबुत न बचने की हद तक...
साबित करती रहेंगी हम कि हे दंडाधिकारियो..
गलत नही थे हमें ज़िंदा बख्श दिए जाने के तुम्हारे फैसले

हमने किये विवाह तो साबित हो गये सौदे
हमने किये प्रेम तो कहलाये बदचलन..
हमने किये विद्रोह तो घोषित कर दिए गये बेलगाम

छाँटे गये थे हम मंडी में ताज़ी सब्जियों की तरह
दुलराये गये थे कुर्बानी के बकरे से..
विदा किये गये थे सरायघरों के लिए..
जहां राशन की तरह मिलते थे मालिकाना हक

आंके गये थे मासिक तनख्वाओं,सही वक्त पर जमा हुए बिलों,स्कूल के रिपोर्ट कार्डों,
घर भर की फेंग शुई और शाइनिंग फेमिली के स्लोगन से..
और इस चमकाने में ही बुझ गईं थीं हमारी उम्रें
चुक गईं सपनो से अंजी जवान आँखें..

हमसे उम्मीदों की फेहरिश्त उतनी ही लम्बी है
जितनी लम्बी थी दहेज़ की लिस्ट..
शरीर की नाप तोल,रंग,रसोई,डिग्रियां और ड्राइंगरूम से तोले गये थे हम

क्लब में जाएँ तो चुने जाने की सबसे शानदार वजहें सी लगें
रसोई में हों तो भुला दें तरला दलाल की यादें..
इतनी उबाऊ भी न हो जाएँ कि हमारी जगहों पर आ जाएँ मल्लिकाएं

सीता सावित्री विद्योत्तमा और रम्भा ही नही

हम में स्थापित कर दी गईं हैं अहिल्याएँ....
लक्ष्मण रेखा के दोनों और कस दिए गये हमारे पाँव
हमारे पुरुष निकल चुके हैं विजय यात्राओं पर..

हमने कहा, सहमत नही हैं हम
हमारे रास्ते भर दिए गये आग के दरिया,खारे पानी के समुन्दरों और कीचड़ के पोखरों से
नासूर हैं हमारे विद्रोह , लड़ रहे हैं हम गोरिल्ला युद्ध
खत्म हो रहे हैं आत्मघाती दस्तों से ..

हमारी बच्चियों
हमारी मुस्कुराहटों के पीछे..
कहाँ देख पाओगी हमारे लहूलुहान पैरों के निशान
हमारे शयनकक्षों में सूख चुके होंगे बेआवाज बहाए गये आंसुओं से तर तकिये
सीनों में खत्म हुए इंकार भी,अच्छा हो कि दफ्न हो जाएँ हमारे ही साथ..

हमारी कोशिश है कि खोल ही जाएँ
तुम्हारे लिए, कम से कम वह एक दरवाजा
जिस पर लिखा तो है 'क्षमया धरित्री'
किन्तु दबे पाँव दबोचती है धीमे जहर सी
गुमनाम मौतें...

इसलिए,जब भी तुम कहोगी हमसे 'विदा'
तुम्हारे साथ ही कर देंगे हल्दी सने हाथों वाले तमाम दरवाजे
ताकि आ सको वापस उन्ही में से ..
खुली आँखों से खाई,कई कई चोटों के साथ !!

(वंदना शर्मा)

अकाल और उसके बाद.....



कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद |

(नागार्जुन)

कविता का विस्तृत विश्लेषण

नागार्जुन की यह कविता अकाल के भयावह प्रभाव और उसके बाद के राहत भरे क्षणों का सजीव चित्रण करती है। यह कविता दो भागों में बंटी हुई है, जो भूख और भोजन की वापसी के बीच के अंतर को दर्शाती है।

पहला भाग: अकाल की त्रासदी

कविता का पहला भाग अकाल की मार को दिखाता है। कवि ने यहाँ मानवीकरण (personification) और सूक्ष्म बिम्बों (imagery) का सुंदर प्रयोग किया है।

  • "कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास": यहाँ चूल्हे और चक्की को सजीव बताया गया है। चूल्हा जो भोजन पकाने का प्रतीक है, वह 'रो रहा है' क्योंकि उसमें आग नहीं जली। चक्की जो अनाज पीसने के काम आती है, वह 'उदास' है क्योंकि उसके पास पीसने के लिए कुछ नहीं है। यह दर्शाता है कि घर में भोजन का कोई दाना नहीं है।

  • "कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास": घर के पालतू जानवर भी इस भूख से बेहाल हैं। एक कानी कुतिया (जिसकी एक आँख नहीं है) जो आमतौर पर खाने की तलाश में घूमती है, वह भी भोजन न मिलने के कारण हताश होकर चूल्हे के पास ही सो गई है। यह दर्शाता है कि न केवल इंसान, बल्कि जीव-जंतु भी भुखमरी का शिकार हैं।

  • "कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त": छिपकलियाँ दीवारों पर कीड़े-मकोड़े खाकर जीवित रहती हैं। उनकी "गश्त" (पहरा) जारी है, लेकिन कीड़े-मकोड़े भी भोजन न मिलने के कारण मर चुके हैं। छिपकलियों को भी भोजन नहीं मिल रहा है।

  • "कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त": घर में छिपकर भोजन खाने वाले चूहों की हालत भी 'शिकस्त' (पराजय) जैसी हो गई है। इसका मतलब है कि घर में उनके लिए भी कुछ नहीं बचा है।

यह पूरा भाग अकाल की खामोशी और निराशा को दर्शाता है, जहाँ जीवन के हर पहलू पर भूख का साया है।


दूसरा भाग: जीवन की वापसी

कविता का दूसरा भाग आशा और जीवन की वापसी का प्रतीक है, जब घर में अनाज आता है।

  • "दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद": यह पंक्ति सबसे महत्वपूर्ण है। 'दाने' (अनाज) के घर में आने से ही निराशा का माहौल खत्म होता है।

  • "धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद": चूल्हे में आग जलती है और भोजन पकने लगता है, जिससे धुआँ उठता है। यह धुआँ केवल लकड़ी के जलने का नहीं, बल्कि जीवन और उम्मीद की वापसी का प्रतीक है।

  • "चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद": जब लोगों को भोजन मिलता है, तो उनकी आँखों में चमक आ जाती है। यह चमक केवल खुशी की नहीं, बल्कि जीवन की ऊर्जा और उत्साह की है, जो भूख से खत्म हो गई थी।

  • "कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद": कौआ जो अक्सर भोजन के टुकड़ों की तलाश में आता है, वह भी अब खुश है। उसे भी भोजन मिल गया है। 'पाँखें खुजलाना' (पंखों को रगड़ना) उसकी संतुष्टि और खुशी को दर्शाता है।

यह कविता बताती है कि भूख केवल शारीरिक नहीं होती, बल्कि यह पूरे घर और उसके वातावरण को बेजान कर देती है। वहीं, भोजन की उपलब्धता न केवल पेट भरती है, बल्कि जीवन में खुशी, आशा और ऊर्जा भी वापस लाती है।


Tuesday, November 06, 2012

विस्साव शिंबोर्स्का की एक कविता
















मेरे लिए दुखांत नाटक का सबसे मार्मिक हिस्सा

इसका छठा अंक है

जब मंच के रणक्षेत्र में मुर्दे उठ खड़े होते हैं

अपने बालों का टोपा सम्भालते हुए

लबादों को ठीक करते हुए

Wednesday, October 24, 2012

तब तुम क्या करोगे?















यदि तुम्हें, 
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दुपहर में 
कहा जाय तोडने को पत्थर 
काम के बदले 
दिया जाय खाने को जूठन 
तब तुम क्या करोगे?

यदि तुम्हें, 
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाय
और 

कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला 
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे?


यदि तुम्हें, 
पुस्तकों से दूर रखा जाय
जाने नहीं दिया जाय
विद्या  मंदिर की चौकट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दिवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाय
तब तुम क्या करोगे?

यदि तुम्हें, 
रहने को दिया जाय
फूंस का कच्चा घर
वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाय
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में 
सोने को कहा जाय
तब तुम क्या करोगे?

यदि तुम्हें, 
नदी के तेज बहाव में
उल्टा बहना पड़े 
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें, 
अपने ही देश में नकार दिया जाय
मानकर बंधुआ 
छीन लिए जाय अधिकार सभी
जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर 
फेंक दिया जाएं  
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे?

यदि तुम्हें, 
वोट डालने से रोका जाय
कर दिया जाय लहू-लुहान 
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाय जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाय 
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे?

यदि तुम्हें, 
सरे आम बेइज्त किया जाय
छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर 
कहा जाय बनने को देवदासी 
तुम्हारी स्त्रियों को 
कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे?

साफ सुथरा रंग तुम्हारा 
झुलस कर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर 
नहीं लिख पाओगे 
सत्यम, शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह?
तब तुम क्या करोगे?

- ओमप्रकाश वाल्मीकि

इतिहास

चीजें कितनी तेजी से जा रही हैं अतीत में!
अतीत से कथाओं में,
कथाओं से मिथक में
और समय अनुपस्थित हो गया है
इन मिथकों के बीच
समकालीन कहाँ रह गया है कुछ भी........

सूरत और बाथे की लाशें पहुँच गयी हैं मुसोलिनी के कदमों के नीचे
और मुसोलिनी पहुँच गया है मनु के आश्रम में.....
और यह सब पहुँच गया है पाठ्यक्रम में.
हमारी स्मृतियाँ मुक्त हैं सदमों से,
सदमें मुक्त हैं संवेदना से,
संवेदना दूर है विवेक से,
विवेक दूर है कर्म से.......
चीजें कितनी तेजी से जा रही है अतीत में,
और हम सब कुछ समय के एक ही फ्रेम में बैठकर
         निश्चिन्त हो रहे
भिवंडी की अधजली आत्माएँ,
सिन्धु घाटी की निस्तब्धता
         निस्संगता और वैराग्य के
         परदे में दफ़्न हैं.
इतिहास!
अब तुम्हें ही बनाना होगा समकालीन को 'समकालीन'.

(अंशु मालवीय )

Thursday, October 18, 2012

Woh Pal.........................वो पल





























बंद करके रख दिए
वो पल वो शब्द
वो वाकये जो आह्लादित
मलय की सुगंध देते थे ,
मन की तिजौरी में,
और वक़्त की बांह पकड़े
उड़ चली कल्पना लोक में
सोचा जब थक जाऊं
मन वितृष्णा  से भर जाए
विरक्ति अपने पंजे में
जकड़ने लगे
गमों   के बादल
आँखों में बसेरा कर लें
जीवन आख्याति
समापन का रुख करे
तब खोल दूंगी ये तिजौरी
और लम्बा श्वांस
लेकर आत्मसात कर लूँगी
इस सुगंध को
नव्य जीवन की ऊर्जा  हेतु !!

( राजेश कुमारी )

Photo credit 
Max Gasparini



Friday, October 12, 2012

मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ






















मां दुखी है
कि मुझ पर रुक जायेगा ख़ानदानी शज़रा

वशिष्ठ से शुरु हुआ
तमाम पूर्वजों से चलकर
पिता से होता हुआ
मेरे कंधो तक पहुंचा वह वंश-वृक्ष
सूख जायेगा मेरे ही नाम पर
जबकि फलती-फूलती रहेंगी दूसरी शाखायें-प्रशाखायें

मां उदास है कि उदास होंगे पूर्वज
मां उदास है कि उदास हैं पिता
मां उदास है कि मैं उदास नहीं इसे लेकर
उदासी मां का सबसे पुराना जेवर है
वह उदास है कि कोई नहीं जिसके सुपुर्द कर सके वह इसे

उदास हैं दादी, चाची, बुआ, मौसी…
कहीं नहीं जिनका नाम उस शज़रे में
जैसे फ़स्लों का होता है नाम
पेड़ों का, मक़ानों का…
और धरती का कोई नाम नहीं होता…

शज़रे में न होना कभी नहीं रहा उनकी उदासी का सबब
उन नामों में ही तलाश लेती हैं वे अपने नाम
वे नाम गवाहियाँ हैं उनकी उर्वरा के
वे उदास हैं कि मिट जायेंगी उनकी गवाहियाँ एक दिन

बहुत मुश्किल है उनसे कुछ कह पाना मेरी बेटी
प्यार और श्रद्धा की ऐसी कठिन दीवार
कि उन कानों तक पहुंचते-पहुंचते
शब्द खो देते हैं मायने
बस तुमसे कहता हूं यह बात
कि विश्वास करो मुझ पर ख़त्म नहीं होगा वह शज़रा
वह तो शुरु होगा मेरे बाद
तुमसे !

(अशोक कुमार पांडे )

Thursday, October 11, 2012

खोज का सफ़र...by Preetpal Hundal







ऐ दोस्त

तुने क्यूँ  चुना

खुद को खुदकशी के लिये

एक ज़ज्बे के लिए ठीक नहीं होता यूँ कतल हो जाना

एक ही नाटक में कितनी बार मरोगे

आखिर कितनी बार

रिश्तों को बचाते बचाते

खुद को न बचा पाओगे

 
वो  रिश्ता होगा

खुदकशी के धरातल पर बना रिश्ता

अपने आप को तोड़   कर

क्या तामीर कर रहे हो,

इमारतें  ऐसे नहीं बनती ,

बस करो अब ...

बंद करो यह नाटक ...

कुछ मत बदलो ..

बस ...

शुरू करो अपनी खोज का सफ़र

ज़िन्दगी  लम्बी कहानी का नाम नहीं है

भूल जाओ  किताबों की बातें

खुद से प्यार करो

यही से शुरू होगा ...

खोज का सफ़र




(प्रीत पॉल हुंडल  )



Painting by Joao Paulo De Carvalho






यह रचना प्रीत पॉल हुंडल द्वारा लिखी गई है।

यह एक बहुत ही गहरी और भावनात्मक कविता है जो दोस्ती, आत्म-सम्मान और जीवन के महत्व पर केंद्रित है। इसमें कवि अपने दोस्त को संबोधित करते हुए खुद को खत्म करने (खुदकशी) के विचार को त्यागने का आग्रह कर रहे हैं।

कविता के मुख्य भाव इस प्रकार हैं:

  • खुद को कत्ल न करने का आग्रह: कवि अपने दोस्त से पूछते हैं कि उसने आत्महत्या का रास्ता क्यों चुना और इसे एक जुनून के लिए खुद का कत्ल करना बताते हैं, जो कि सही नहीं है।

  • खुद को बचाने की सीख: कवि यह समझाते हैं कि रिश्तों को बचाने के लिए बार-बार खुद को मिटाना या कुर्बान करना ठीक नहीं है। ऐसे रिश्ते जो आत्म-त्याग पर आधारित हों, वे खोखले होते हैं।

  • खुद से प्यार करने का संदेश: कविता का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि बाहरी चीजों को बदलने के बजाय, अपनी खोज का सफर शुरू करो और सबसे पहले खुद से प्यार करो। यही आत्म-सम्मान और जीवन में आगे बढ़ने का असली रास्ता है।

कुल मिलाकर, यह एक प्रेरणादायक और मार्मिक रचना है जो जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने और खुद को सबसे पहले महत्व देने की सीख देती है।

मैं कविता हूँ .....





इस जिंदगी की तेज़ ,
बहुत तेज़ दौड़ती
भागम भाग से हार कर ,
अजनबियत के सायों से परेशान हो कर ,
अकेलेपन को ओढे हुए
मैं . . .
जब भी कभी
किसी थकी-हारी शाम की
उदास दहलीज़ पर आ बैठता हूँ
तो
सामने रक्खे काग़ज़ के टुकडों पर
बिखरे पड़े
बेज़बान से कुछ लम्हे
मुझे निहारने लगते हैं...
मैं . .
उन्हें.. छू लेने की कोशिश में...
अपने होटों पर पसरी
बेजान खामोशी के रेशों को
बुन बुन कर
उन्हें इक लिबास देने लगता हूँ
और वो तमाम बिखरे लम्हे
लफ्ज़-लफ्ज़ बन
सिमटने लगते हैं....
और अचानक ही
इक दर्द-भरी , जानी-पहचानी सी आवाज़
मुझसे कह उठती है ....
मैं... कविता हूँ ...............!
तुम्हारी कविता .............!!
मुझसे बातें करोगे ......!?!


(Danish)


Photo Credit: Max Drupka

Wednesday, October 10, 2012

सरल रास्ते

थक  चुका हूँ मैं
सीधे-सरल  रास्तों पर चलते-चलते.

शुक्रगुज़ार हूँ मैं उनका,
जिन्होंने क़दमों तले  फूल  बिछाए,
पर अब इन  फूलों से तलवे जलने लगे हैं,
पेड़ों की घनी छांव  में
अब दम  घुटता है,
सीधी सपाट सड़क
अब उबाऊ  लगती है।























क्या फ़ायदा  इस  तरह चलने का
कि पसीना भी न  निकले,
इतनी भी थकान  न  हो कि
सुस्ताने का मन  करे?
घर से ज्यादा आराम  सफ़र में हो,
तो क्या फ़ायदा  बाहर  निकलने का,
बैठने से ज्यादा आराम  चलने में हो,
तो क्या फ़ायदा ऐसे चलने का?

मुझे दिखा दो उबड़-खाबड़ राह ,
जिसमें कांटे बिछे हों,
जहाँ दूर-दूर तक  कहीं
पेड़ों कि  छांव  न  हो,
जिस  पर चल कर लगे कि  चला हूँ,
फिर मंजिल  चाहे मिले न  मिले।

(ओंकार केडिया )

Photo Credit: Unknown

Tuesday, October 09, 2012

ईमानदार लोग

बहुत  पसंद हैं मुझे
ईमानदार  लोग ,
धारा के विरुद्ध  चलनेवाले ,
निज़ी स्वार्थों से परे,
अन्दर से मजबूत,
फिसलन  पर भी जो
डटकर खड़े रहते हैं।

बेईमानों की दुनियां में
ईमानदार  मिलते कहाँ हैं?
इनको सहेजना ज़रूरी है,
देखना ज़रूरी है
कि इनकी जमात 
कहीं लुप्त न हो जाय .

बहुत  पसंद हैं मुझे
ईमानदार लोग,
बहुत  इज्ज़त  है
मेरे मन  में उनकी,
मुझे बस  उनकी
यही बात  पसंद नहीं
कि वे अपने अलावा सबको
बेईमान  समझते हैं। 


(Onkar Kedia)

Monday, October 08, 2012

माँ


कितनी अच्छी हो तुम, माँ !
kitni acchi ho tum maan

कह सकता हूँ तुमसे
keh sakta hoon tumse
मन की सारी बातें,
man ki saari baatein
यह कि मेरे दोस्त आएँ
yeh ki mere dost aayein 
तो अंदर ही रहना,
to andar hi rehna 
सामने आओ भी
saamne aao bhi  
तो अच्छी साड़ी पहन
to acchi saree pehan
बाल संवारकर आना
baal sanwaarkar aana
और दूरवाली कुर्सी पर बैठना.
aur doorwaali kursi per baithna 




























उनकी नमस्ते का उत्तर
unki namastey ka uttar
हाथ जोड़कर देना,
haath jodkar dena
हो सके तो चुप ही रहना,
ho sakey to chup hi rehna 
बोलना ही हो तो
bolna hi ho to 
ज़रा ध्यान रखना,
zaraa dhayaan rakhna
शर्म को सर्म,
sharm ko sarm
ग़ज़ल को गजल मत कहना.
ghazal ko gajal mat kehna 

उनके सामने चाय न पीना,
unke saamne chai na peena
सुड़कने क़ी  आवाज़ आएगी.
sudakne ki aawaaz aayegi


मेरी इतनी सी बात मानोगी न,
meri itni si baat maanogi na
मेरी अच्छी,प्यारी, माँ ?
meri acchi pyaari maan ?


(ओंकार केडिया)




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