Monday, October 22, 2012

डॉ.सिद्धार्थ ... ek Kahani


असंभव !
यह हो ही नहीं सकता।
इतना पागल कोई नहीं होता।
कोई अपनी लगी-लगाई नौकरी भी छोड़ता है क्या?
आकाश से बिजली टूट कर पर्वत की शिलाओं को दरका जाती होगी, तो ऐसा ही होता होगा। ज्वालामुखी फूटकर अपना लावा पृथ्वी के तल पर बहाता होगा तो पृथ्वी के वक्ष पर भी ऐसे ही फफोले पड़ जाते होंगे। समुद्र की लहरें जल का पहाड़ लेकर आती होंगी तो तट की रेत पर इसी प्रकार पछाड़ खा कर गिरती होंगी, जैसे आज उसका मन अपना सिर पटक-पटक कर रो रहा था ...

दामिनी स्कूल के दिनों से ही उनकी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ा करती थी। वह बिना जाने ही कि उसके अपने मन में भी कुछ लिखने

आत्मगर्भिता





















जीत की बिब्बी जोर-जोर से चीखे जा रही थी। “अरी! ओ जीतो जल्दी आ, देख सरदार जी को खाँसी लगी है। भीतर से मुलठ्ठी-मिसरी ले आ। अरी! पानी का गिलास भी लेती आइयो।  नासपिट्टी सारा दिन खेल में लगी रहे है।”
मैं अपने कमरे में बैठी पढ़ रही थी। जीत की बिब्बी की कर्कश पुकार ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। अपनी खिड़की से झाँककर मैंने उनके घर की ओर देखा। अपने घर के बाहर कुर्सी पर बैठे अपने पति की पीठ को बिब्बी जोर-जोर से मल रही थी कि जीत सारा सामान ले कर आ पहुँची थी। सरदारजी अपने कोयले के गोदाम से कोयले की धूल-मिट्टी गले में चढ़ाकर लौटे थे, तभी खाँस रहे थे। सरदारजी की अधपकी दाढ़ी व सिर के बाल सफेद देखकर उनके पकी उम्र का अंदाज़ा होता था। वहीं उनकी बीवी के सारे बाल काले-स्याह व रंग भी काला था। उनकी बड़ी बेटी जीत बारह-तेरह साल की व छोटी वंत उससे दो साल छोटी थी। बिब्बी जम्पर और पेटीकोट पहनकर सारा दिन मोहल्ले में बेधड़क घूमती थी। उसके छोटे देवर का दो कमरों का घर था, सुना था वही उन्हें अपने साथ रहने को लाया था। घर के बाहर
सीढ़ियों पर बैठकर बिब्बी घर का सारा काम वहीं करती और आने-जाने वालों से बतियाती रहती थी। उधर सारा दिन रौनक ही लगी रहती थी।
मेन सड़क से भीतर की ओर जो गली मुड़ती थी, उसमें एक ओर हमारा घर एक सिरे से आरम्भ होकर चौरस्ते के कुँए तक उसका दूसरा सिरा था। कुएँ के तीनों ओर तीन रास्ते और थे। हमारे घर की बालकनी पूरी गली में थी। सामने खाली मैदान था। मैदान के बाईं ओर पहला घर खड़गसिंग का, दूसरा जीत का, अगला चाहरदिवारी वाला आहाता, खाली मैदान था। उसके आगे बैंक वाले भैय्या का और आखिरी घर फुल्ली का था। मैदान के दाहिनी ओर कुँए से दूसरी गली थी। वहाँ सामने राव साहब रहते थे। उनका एक बेटा हैदराबाद में था, यह खाली मैदान उसी की ज़मीन थी। साथ वाले घर में राठीजी और उनके ऊपर दुबेजी की विधवा व जवान बेटा रहते थे। शुक्लाजी के घर ने मैदान का पिछला हिस्सा घेरा हुआ था। कुल मिलाकर मोहल्ले में सभी प्यार
मोहब्बत से रहते थे।
खड़गसिंग के घर दो वर्ष बीतते थे कि बच्चा हो जाता था। उन दिनों जीत की बिब्बी उनका खूब ध्यान रखती थी। नहीं तो आपस में दोनों लड़ पड़तीं थीं। शुरू-शुरू में तो मोहल्ले के लोग समझाने या बीच बचाव करने जाते थे, किन्तु धीरे-धीरे सभी ने जाना छोड़ दिया। अब सब को आदत हो गई थी। जीत की बिब्बी कभी खड़गसिंग को दूर के रिश्ते का देवर बताती थी, तो कभी दुश्मन बना लेती थी। उसकी वही जाने, पर उनकी गाली-गलौज का शोर पढ़ने नहीं देता था। जब गालियों की बौछार शुरू होती, तो हम लोग अपनी खिड़कियों के पाट कसकर बंद कर देते थे। कहीं उन गालियों की गंदगी हवा में मिलकर हमारे घर में प्रवेश न कर जाए। असमंजस में डूबे, सब यह सोचते थे कि इन्हें प्यार से रहते-रहते अचानक घर को अखाड़ा बनाने की क्यों सूझती है। जीत के बाबा और खड़गसिंग केशधारी सरदार थे, लेकिन जो छोटा भाई इन्हें यहाँ लाया था और जिसके घर में जीत का परिवार रहता था, वो केशधारी नहीं था। जीत और वन्त कौर उसे प्रेम चाचा कहकर बुलाती थीं। मोहल्ले के सारे बच्चों का भी वो प्रेम चाचा था। वो किसी से भी बात नहीं करता था। सुबह आठ बजे वो अपनी साईकिल चलाकर गन-फैक्टरी में काम करने करीब दस मील दूर जाता था। साँझ ढले शराब का पौव्वा लेकर घर लौटता था। जीत बच्चों को शान से बताती थी , “मेरे बाबा और चाचा रात को इकठ्ठे बैठकर शराब पीते हैं, फिर बिब्बी की दो-चार गालियाँ और डाँट सुनकर ही सोते हैं”। यही दिनचर्या थी उसकी। हाँ, इतवार के दिन वो अपनी साईकिल को धोता और दुल्हन की तरह चमकाता था। वो भी घर के बाहर सीढ़ियों के पास अपनी मैदान से सटी गली में।
हमारा बचपन इसी मैदान से जुड़ा है। इस मैदान में मोहल्ले के सारे बच्चे खेलते थे। बैड-मिन्टन, फुटबाल, छुआ-छुअल्ली, पिट्ठू, सटापू, रस्सी-कूदना से लेकर नदी-पहाड़ और आँख-मिचौली तक। हमने एक बार गुड्डा-गुड़िया का ब्याह भी यहीं रचाया था। मेरा गुड्डा और फुल्ली की गुड़िया । उसने ईंटों के चूल्हे में आग जलाकर भात और आलू-बैंगन की रसेदार भाजी बाकर बारात का स्वागत किया था। सारे मोहल्ले को न्यौता भेजा गया था। सब बड़ों ने बच्चों का मन रखने को खाया भी और उस जमाने में अठन्नी-रूपया शगुन भी दिया। सारा हिसाब फुल्ली के भाई लल्लू के पास था। अगले सात दिनों तक खूब मौज–मस्ती की थी सब बच्चों ने मिलकर। बैठक लगती थी कुएँ की जगत पर। सिंधी की दूकान से टॉफियाँ लाकर सब में बराबर
बाँटी जाती थीं। बेईमान लल्लू! कुछ पहले से अपनी जेब में छिपा लेता था, बाद में सब को चिढ़ा-चिढ़ाकर खाता था। जिससे फुल्ली को बहुत शर्मिन्दगी लगती थी। फुल्ली मेरी पक्की सहेली थी। छुटटी के दिन कभी-कभार मैं जानबूझकर खाने के समय उनके घर जाती तो उसकी अम्मा मुझे भी थाली में खाना परोस देती थी। वहीं नीचे ज़मीन पर बैठकर मैं भी हाथ से खाने बैठ जाती, तो वे एहसान मानकर कहतीं, “अरे-रे बिटिया! हम गरीबन के घर मींज लेती हो! कित्ता नीका लागे है।” उस थाली को याद करके, आज भी मेरे मुँह का स्वाद बढ़िया हो जाता है ।
फुल्ली की बड़ी बहन थी सीला दिदिया- जो चार पास करके घर बैठी थी। फुल्ली सुबह दस बजे की गई पुत्री-पाठशाला से शाम पाँच बजे लौटती थी। मैं अंग्रेजी-स्कूल से तीन बजे आकर जल्दी होम-र्वक निपटाकर उसकी बाट जोहती थी। फुल्ली के आने पर फिर स्टापू और पिठ्ठू खेला जाता था। सीला दिदिया मुझे जब भी बुलाती, मैं बिदक जाती क्या भाग ही जाती थी। वो मुझे फूटी आँख नहीं भाती थी। न होता तो शुतुरर्मुग की तरह अपनी आँखें मींच लेती थी मैं। मेरे चेहरे पर घृणा के भाव आए बिना नहीं रहते थे, जिसका कारण मैं किसी को बता नहीं पाती थी।
सन् १९५५ के आसपास की बात है। जिस घर में अब जीत की बिब्बी शोर मचा रही थी, उस घर में एक जवान जोड़ी रहने को आई थी। मर्द गोरा चिट्टा गबरू जवान था, उसकी घरवाली प्रकाशो बेहद ही सुन्दर, सुलझी हुई किसी ऊँचे घराने से संबंधित जान पड़ती थी। वो यदाकदा ही घर से बाहर निकलती थी। अपने घर की खिड़की से वो जब भी बाहर झाँकती, किसी की भी नज़र अपने तक पहुँचने से पहले ही वो खिड़की की ओट में गुम हो जाती थी। मोहल्ले के सभी बड़े-बूढ़े व बच्चे उसकी एक झलक पाने को ललायित रहते थे। तब मैं चौथी कक्षा में पढ़ती थी। अपने घर की बाल्कनी से मेरी दृष्टि भी बार-बार उसी ओर अटक जाती थी। वो दोनो प्रत्येक शनिवार की रात नौ बजे सिनेमा का आखिरी शो देखने रिक्शे में जाते थे। प्रकाशो आधे घूँघट में होती थी। मैं नौ से पहले ही कुएँ की जगत पर जाकर बैठ जाती थी, और मन की मुराद पा ही लेती थी। मेरे मन की चाहत की भनक उसे हो गई थी, तभी तो क्या देखती हूँ एक दिन-मैं बाल्कनी पर खड़ी थी, उधर ही मुँह करके। वो हाथ के इशारे से मुझे बुला रही थी। मैंने अपने आसपास देखा, वहाँ और कोई नहीं था। समझ गई मैं कि यह इशारा मेरे लिए था। मेरी तो बाँछें खिल गईं। मैं निकल पड़ी अपनी मंज़िल की ओर उसके घर के बाहर पहुँच कर मैंने बंद दरवाजे पर धीमे से दस्तक दी। जब तक दरवाजा खुलता, मुझे लगा मैं अलीबाबा की गुफा के द्वार पर खड़ी हूँ। दरवाजे के खुलते ही जैसे अलीबाबा की आँखें हीरे-जवाहरात देखकर फटी की फटी रह गईं थीं, ऐसा ही कुछ हाल मेरा भी होने वाला है। “खुल जा सिम-सिम, खुल जा सिम-सिम” के बोल मेरे दिमाग में झनझना रहे थे। दरवाजा खुलने में देर होने पर मैंने कुंडी जोर से खटकाई, तो भीतर से किसी ने थोड़े से पाट खोले और मेरी कलाई पकड़कर मुझे भीतर खींच लिया व दरवाजे को फिर उड़का दिया।
गोरी-गोरी कलाइयों पर हरे काँच की ढेरों चूड़ियाँ, बदन पर हरी छींट की कमीज, सफेद सलवार और लेस लगी सफेद चुन्नी सिर पर ओढ़े हुए -माथे पर बड़ी सी सिंदूर की बिंदी...कुल मिलाकर वो फिल्मों की हीरोईन मीनाकुमारी जैसी सौन्दर्य की प्रतिमा लगी। माथे पर गिरती लेस चेहरे का नूर बाखूबी बढ़ा रही थी। बहुत सलीके से मुझे कुर्सी पर अपने सामने बैठाकर वो पूछने लगी-“बेबी बुलाते हैं न तुमको?”
मैंने उसकी आँखों में देखते हुए “हाँ” में सिर हिला दिया।
“यह ड्रैस फूलोंवाली बहुत सुन्दर है, किसने बनाई झालर लगाकर?”
“दिल्ली से हम तीनों बहनों की बनकर आई हैं”- मैंने धीरे से जवाब दिया।
“आओ मैं तुम्हारी चोटियाँ गूँथ दूँ?” - मेरे खुले बालों को देखकर वो बोली।
“आज नहीं, फिर कभी”-मैंने जवाब दिया।
इसी तरह प्यारी-प्यारी, मीठी -मीठी बातों में लगे हम दोनो में दोस्ती हो गई। एक-दूसरे का साथ दोनों को ही भला लगा। उसने मुझे खाने को बिस्कुट दिए व मुझसे दोबारा आने का क्का वादा लिया। खुशी के मारे मेरे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। मैं उड़ती हुई अपने घर पहुँची और कमरे में आईने के सामने खड़े हो कर यूँ अपने को देखा मानो कोई मोर्चा जीत कर लौटी हूँ।
धीरे-धीरे प्रकाशो के घर जाने का मुझे नशा सा हो गया था। मुझे जब भी मौका मिलता, मैं उसका सुन्दर रूप निहारने व उससे बतियाने अधिकार-पूर्वक उसके घर चली जाती थी।  छोटी बहन को मैंने शान से यह राज़ बताया तो उसने माँ को चुगली लगा दी। माँ ने करारी डाँट लगा दी, “तुम बच्चों के साथ खेलो, उस ब्याही औरत के घर जाने का तुम्हारा कोई काम नहीं क्या मालूम वो क्या सिखा दे, खबरदार जो वहाँ गई!” अब माँ को कैसे बताऊँ कि वो कितनी भली व फिल्मों की हीरोईन जैसी है। अब तो मैं छिप-छिप कर जाने के मौके ढूँढती, जिससे मेरी बहन न देख ले। एक दिन मैं ज्योंही पहुँची, तो देखती हूँ कि वो रोए जा रही है। मैं कश्मकश में थी कि उसे कैसे दिलासा दूँ, तभी मेरे चेहरे के भावों को पढ़कर वो बोली कि तुम चिंतित न होवो मुझे अपने पीहर की याद सता रही है, तभी रो रही थी। उसने बताया, “सन् १९४७ की बात है। विभाजन के समय मैं तो अपने पति के पास हिन्दुस्तान में थी। उस समय इंसान दरिंदा बना हुआ था। औरतों को रावलपिंडी से निकालना मुमकिन नहीं था। माँ, बहन व भाभियों की इज्जत न लुट जाए, इसलिए पिता जी ने सारे परिवार को घर में बंद करके, बाहर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी थी। वही सब याद करके रो रही थी।” यह सुनकर मेरा दिल भी दहल उठा था। मैं छोटी थी, पर उसका दर्द समझती थी। तभी वो अपने दिल के दुखड़े मुझसे साँझा करती थी। हम दोनों सहेलियाँ बन गईं थीं, उम्र से बेखबर परीक्षा के दिन करीब थे, हमें माँ पढ़ाती थी, इससे उधर विशेष जाना नहीं हो पाता था। तत्पश्चात् ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ थीं। हम दो माह के लिए दिल्ली जा रहे थे, अपने ननिहाल। माँ से बताकर मैं सब सहेलियों से विदा लेने चली। सर्वप्रथम प्रकाशो के घर पहुँची। वहाँ भीतर जाते ही देखती हूँ कि फुल्ली की सीला दिदिया
आसन जमाए बैठी है। उसे वहाँ देखकर मुझे कुछ अटपटा सा लगा। प्रकाशो के सम्मुख वो फूहड़ जान पड़ती थी। खैर, मैंने प्रकाशो को दिल्ली जाने का बताया तो उसने प्यार से मुझे गले लगाया और कहा, “सदा खुश रहो”। मैं जाने के जोश में चिड़या की भाँति फुदकती वहाँ से भागी। जब तक मैं सबसे मिलकर वापिस लौटी तो क्या देखती हूँ - प्रकाशो के घर के पाट खोलकर एक जवान लड़का बाहर निकला और गली के अँधेरे में गुम हो गया। अगले ही पल सीला दिदिया भी झट से बाहर निकली और साथ वाले आहाते में घुस गई। मैं वहीं कुछ कबाड़ व बोरियों के पीछे से आ रही थी, जिससे वे दोनों ही मुझे देख नहीं पाए थे। मैं शिशोपंज में डूबी अपनी सीढ़ियाँ चढ़ गई। घर पहुँचते ही ध्यान बँट गया व अगली सुबह हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे। दो महीने मौज-मस्ती करके जब हम वापिस घर पहुँचे, तो मैं प्रकाशो से मिलने को उतावली हो उठी। मौका ढूँढने लगी। दोपहर को जब सब सो गए तो मैं उसके दरवाजे पर एक सुन्दर सी टोकरी उपहार देने पहुँची। दस्तक दी, आशा के विपरीत दरवाजा नहीं खुला। कुंडी खटकाई, धीरे से द्वार के आधे पाट खुले और मैं अधिकार-पूर्वक भीतर पहुँच गई। अति उत्साहित जैसे ही मैंने बोलने को मुँह खोला कि मेरी दृष्टि वहीं ठहर गई । हतप्रभ सी, मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। प्रकाशो का मुँह सूजा हुआ था। आँखें बाहर निकली हुई थीं। नाक व गालों पर खरोंचों के निशान थे। सौंदर्य की प्रतिमा खंडित जान पड़ती थी। मेरा मन हाहाकार कर उठा... रूलाई रोके नहीं रुक रही थी। प्रकाशो को पहचानना कठिन जान पड़ता था। मेरे कुछ कहने से पूर्व ही उसने रोते हुए, जोर की हिचकियाँ लेते हुए भींचकर मुझे अपने सीने से लिपटा लिया। बोली, “कहाँ चली गई थी तूं बेबी? मैं तो बरबाद हो गई। मेरी सारी तपस्या मिट्टी में मिल गई। मैं भरी दुनिया में अकेली हो गई।”
प्रकाशो का अपार स्नेह, अपनत्व व अनुराग पाकर मैं अविभूत हो उठी। मुझे लगा कि वास्तव में उसे छोड़कर जाना मेरी भूल थी। उसके कोई औलाद नहीं थी, न ही कोई भाई-बहन, शायद वो ऐसे ही किसी प्यार से मुझे बाँधती थी। अहम् था कि वो मुझे अपना मानती थी। अपना दुख-दर्द मुझ से बाँटती थी। जो भी रिश्ता वो मानती होगी, उस रिश्ते का कोई नाम नहीं था। वो दिल का सच्चा रिश्ता था। आज भी मैं उसे किसी नाम की सीमा में बाँधकर उसकी पवित्रता व गहराई को नाप नहीं पाऊँगी! इतना जानती हूँ।
उसके स्नेहालिंगन के पाश से बाहर निकलकर, मैंने पलकें उठाकर उससे ढेरों सवाल पूछ डाले। अपने सिर की कसम दकर उसने मुझसे पक्का वादा लिया कि कभी भी किसी को यह बात पता न चले, क्योंकि जो कुछ वो मुझे बताने जा रही थी वो किसी लड़की की इज्ज़त से संबंधित है। ..मालूम हुआ, फुल्ली की सीला दिदया का किसी लड़के से कुछ महीनों से इश्क चल रहा था। पहले वो और सीला प्रकाशो के घर चिठ्ठी ले और दे जाते थे। प्रकाशो उन दोनों प्रेमियों की मदद करके अपने को पुण्य का अधिकारी मानती थी। धीरे-धीरे उन दोनों प्रेमियों ने अनुनय-विनय करके प्रकाशो के घर पर ही मिलने की आज्ञा ले ली थी। वो भीतर वाले कमरे में मिलते थे और प्रकाशो के पति के घर लौटने के पूर्व ही चले जाते थे। भला प्रकाशो को इसमें क्या एतराज़ था, सो उनका इश्क परवान चढ़ता रहा। दोनो की गाड़ी पटरी पर दौड़ रही थी कि अचानक एक दिन प्रकाशो के पति को पेट-दर्द उठा और वो फैक्टरी से छुट्टी लेकर साँझ होते ही घर लौट आया। सीला का प्रेमी अभी आकर बैठा ही था कि कुंडी खटकाने पर दरवाजा खुलते ही सीला के बदले प्रकाशो के पति भीतर आ गए। आते ही आव देखा न ताव, जूतों से मार-मार कर उस लड़के की उन्होंने इतनी बुरी गत बनाई कि वो किसी तरह जान बचाकर वहाँ से भागा। उन्हीं जूतों से प्रकाशो को बेतहाशा पीटा, साथ ही गालियों की बौछार बरसाई। उसे उस बेवफाई की सज़ा दी, जो उसने नहीं की थी।
बाहर सारा मोहल्ला इकठ्ठा हो गया था। तरह-तरह की बातें हुईं, उन सब में सीला भी थी। लेकिन वो क्या कहती? जितने मुँह उतनी बातें, किन्तु असलियत का पता न तब किसी को था न ही कभी बाद में हुआ।
उस दिन से जुल्म सहने का सिलसिला जो आरम्भ हुआ, तो अपनी चरम सीमा लाँघकर ही समाप्त हुआ। प्रकाशो ने जीवन के आनेवाले पल मर-मर कर जीये थे। उस दिन से प्रकाशो का पति शराब पीने लग गया। काम से घर आकर वो पूरा पौव्वा शराब का पीता फिर नशे में उसे गालियाँ देता और मारने लग जाता था। खाने के बर्तन उस पर फेंक देता, जिससे उसके चेहरे पर कट गया था। प्रकाशो ने सारे ज़ुल्म सहे, पर अपना मुँह नहीं खोला। अपना वादा निभाया, वो बता नहीं सकी कि वो निर्दोष है। उसका पति उसे बेहद चाहता था, उसकी बेवफ़ाई पर वो तड़प उठा था। अपनी बाल्कनी पर खड़े होकर सुनने से उसके बंद दरवाजे से सब आवाजें मुझे सुनाई देती थीं। मैं चैन से सो नहीं पाती थी, आधी-आधी रात तक उसके ख्यालों में खोई रहती थी। न जाने फिर कब नींद की आगोश में जाकर मैं चैन पाती थी। एक दिन मैं उससे मिलने के मोह को रोक नहीं पाई, बहुत हिम्मत जुटाकर वहाँ जा पहुँची।
देखती क्या हूँ.. प्रकाशो के माथे पर पट्टी बँधी है, चेहरे पर ज़ख्म हो गए हैं। सारा समय रोते रहने से आँखों के नीचे काले गठ्ठे बन गए हैं। वो पहचान में नहीं आ रही थी। हाँ अलबत्ता, सिंदूर की बड़ी बिन्दी वहीं थी, अपनी लाली बिखेरती हुई। जैसे सारा मोर्चा उसीने सँभाल रखा हो। उसने गिला करते हुए पूछा- “बेबी! तुमने भी आना छोड़ दिया, क्यों?” मैं जवाब देने के बदले उससे लिपट के रो पड़ी। क्या कहती उससे कि मुझसे तुम्हारी दशा नहीं देखी जाती, तभी मैं तुमसे दूर तुम्हारे लिए तड़पती रहती हूँ। हम दोनों एके-दूसरे से लिपटी कुछ देर यूँ ही रोती रहीं। अचानक उससे छूटकर मैं बाहर भागी, सीधे जाकर अपनी माँ को कहा कि वो मेरे साथ चले और उसे देखे। मेरी माँ ने मेरी तड़प व चेहरे के भाव पढ़े तो वे उसी क्षण मेरे साथ हो लीं। माँ को देखते ही जैसे उसके सब्र का बाँध ही टूट गया। प्रकाशो उनसे लिपटकर बिलख उठी। उनकी गोद में सिर रखकर वो जी भरकर रोई, मानो बरसों की तड़प चैन पा रही हो। माँ और मैं भी उसके दुख के साझीदार बन गए थे, अविरल अश्रुधाराएँ बहाते हुए। माँ ने उसे प्यार किया व दिलासा दी। मुझे अपनी माँ पर गर्व हुआ, एक दुखी आत्मा का दर्द बाँटा था उन्होंने। मेरी साथी पर स्नेह उड़ेला था।
अगली सुबह इतवार था। हमारा सारा परिवार इतवार को आर्य-समाज हवन करने जाता था। हम सब ग्यारह-बारह बजे जब हवन करके घर वापिस आए तो प्रकाशो के घर के बाहर भीड़ व शोरड-शराबा सुनकर हम सब भी वहीं चले गए। प्रकाशो का पति जोर-जोर से चीख रहा था। वो भीतर से बंद दरवाजे को खोलने का प्रयत्न कर रहा था। पुराने ज़माने का मोटा दरवाजा व लोहे की मोटी साँकल... न वो खुल रहा था, न ही टूट रहा था। तभी बैंकवाले भैया अपने घर से एक मोटा बाँस उठा लाए। तीन-चार लोगों ने अपना पूरा जोर लगाकर बाँस को खिड़की पर जोर से मारा। जोर लगने से दोनो पाट भीतर की ओर खुले। वहाँ से जो नज़ारा दिखा वो आज भी मेरे मनो-मस्तिष्क पर वैसा ही अंकित है। खिड़की में लगी लोहे की सीखों के बीच से.... पंखे से बँधी सफेद चुन्नी, जिसके दूसरे सिरे से प्रकाशो की बँधी गर्दन, बाईं ओर लटका हुआ सिर व आँखें बाहर को निकली हुई दिख रही थीं। यह दृश्य देखते ही मैं पूरा जोर लगाकर चीखी और वहीं गिरकर बेहोश हो गई।  पिताजी उठाकर मुझे घर ले आए। दो दिनों तक मैं बुखार से तपती रही व बेहोशी में बड़बड़ाती रही। प्रकाशो की आकस्मिक और अस्वभाविक मृत्यु का सदमा मुझे गहरा असर कर गया था। अपने गर्भ में राज़ छिपाए चली गई थी.. आत्म-गर्भिता!
उसका पति उसे बेहद चाहता था, रो-रोकर उसने अपने बाल नोच डाले थे। वो टूट गया था। उसके टूटने का कारण था, पत्नी की बेवफाई.. - जो एक भ्रम मात्र था। तभी तो सीला दिदिया को देखते ही मुझे उसका मुँह नोचने का मन करता था। अब मैं कभी भी फुल्ली के घर खाने नहीं जाती थी। प्रकाशो के घर ताला लग गया था।  एक दिन स्ूल से लौटने पर माँ ने बताया कि प्रकाशो का पति अपने बड़े भाई-भाभी व बच्चों को लेकर लौट आया है। जीत की बिब्बी ही तो उसकी भाभी थी। और प्रकाशो का पति था-सब बच्चों का ‘प्रेम चाचा’!
उस घर का दरवाजा सारा दिन खुला रहता था। वहाँ ऐसा अब कुछ भी नहीं था जो ध्यान आकर्षित करे। वक़्त अपनी तेज रफ्तार से दौड़ रहा था। खड़गसिंग की चार बेटियाँ हो गई थीं। सुना कि सीला दिदिया की शादी की बात भी कहीं चल रही थी। मैं अब दसवीं कक्षा में थी। एक रात करीब नौ बजे बाहर शोर सुनकर हम सब बाल्कनी में निकल आए। खड़गसिंग की बेटियाँ थाली पर कड़छुली मार-मार कर शोर मचा रहीं थीं, व घूम-घूमकर नाच रहीं थीं। मालूम हुआ खड़गसिंग के बेटा हुआ है। मोहल्ले के सभी लोग जाकर उन्हें बधाई देने लगे। पलक झपकते ही बाल - मंडली भी वहाँ एकत्र हो गई। तय हुआ कि बड़े लोगों को मुँह मीठा करने दो, हम लोग आँख -मिचौली खेलते हैं। प्रेम-चाचा अपनी सीढ़ी के कोने में गुमसुम बैठा ख्यालों में गुम था। प्रकाशो की मृत्यु के बाद उसे किसी ने हँसते-बोलते नहीं देखा था। जब भी उसे देखती मुझे लगता, मैं हूँ न उसके गम की साथी! फिर भी उस चुप्पी का दंश मुझे भीतर तक चुभ जाता।
उधर सारी बाल-मंडली छिपने के लिए मोहल्ले में फैल गई । वन्त कौर आँखें मीचकर वहीं कोयले की बोरियों के ढेर पर बीस तक जो-जोर से गिन रही थी। जब तक वो ढूँढने जाती, मैं भागी-भागी राठीजी के घर के बगल की सीढ़ियों से ऊपर चढ़ती चली गई। अँधेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। वहाँ खुसपुस की आवाजें आ रही थीं। चन्द्र की कुछ अनछुई किरणें उस घोर तम अँधेरे को चीरकर शायद स्वंय ही मैली होने आई थीं। तभी तो उनके मद्धम प्रकाश में मैंने कलुषित सीला दिदिया और दुबे आंटी के बेटे कमल को निर्वस्त्र एक-दूसरे के आलिंगन-पाश में बँधे रति-क्रीणा में मग्न देखा। यह देखते ही मैं उल्टे पाँव गिरते-पड़ते नीचे की ओर भागी। चुपचाप जाकर बाल-मंडली में मिल गई। मेरी छोटी बहन पकड़ी गई थी, अब उसकी पारी थी। सीला दिदिया का इतना घिनौना रूप देखकर मुझे उल्टी आ रही थी। खेल बीच में ही छोड़कर मैं घर को भागी। प्रकाशो का त्याग मुझे निरर्थक लगा। कितनी गहन, गंभीर और आत्मसम्मान से परिपूर्ण थी प्रकाशो। इस निर्लज्ज की लाज को बचाने के लिए उसने प्रेम चाचा के प्यार व अपनी जान की बलि दे दी थी। उजड़ गया था प्रेम चाचा का नीड़। जिस भाभी को वो अपना घर बसाने को लाया था, वो उसे रोटी खिलाकर राजी नहीं थी। वो कई बार उसे गालियाँ देकर घर से बाहर निकाल देती थी। उसी के घर का दरवाजा उसी के लिए बंद कर देती थी।
एक दिन प्रेम चाचा को मिरगी का दौरा पड़ा, झाड़ने -फूँकने वाले को बुलाया गया। उसने उल्टी कराई, जिसमें बालों का गुच्छा निकला। सारे मोहल्ले में कानाफूसी हुई कि हो न हो ये जीत की बिब्बी ने कोई काला जादू किया है। खैर, तब वो ठीक हो गया। अगले दिन वो फिर गली में गिरा हुआ था। जीत के बाबा ने जब उसे पकड़ कर उठाना चाहा, तो वो वहीं निढाल सा पडा रहा। तभी सुना कि वो कहीं से ज़हरीली शराब पी आया था व अपने दर्द समेटे मृत्यु की गोद में चैन पा गया था। जीत की बिब्बी दहाड़े मार-मार कर उसकी लाश पर मगरमच्छ के आँसू रो रही थी और विलाप कर रही थी, “अरे-रे ! तूं चला गया न अपनी प्रकासो के पास। अपना घर हमारे हवाले कर गया, क्या इसीलिए लाया था हमें यहाँ?” उसके नकली रुदन को सब समझ रहे थे। लेकिन प्रेम के लिए सब दुखी थे। पर आज मुझे बहुत राहत महसूस हो रही थी। मेरी आँखों से चैन के आँसू बह निकले। शायद उस आत्मगर्भिता के लिए मेरी यही श्रद्धांजलि थी।

(वीणा विज 'उदित')

उपलब्धियाँ



















अमेरिका के न्यू जर्सी राज्य के इस मृत्यु-गृह में बैठा मैं अपने मन को सामने रखे शव से दूर ले जाने की चेष्टा कर रहा हूँ। सामने ब्रिगेडियर बहल का मृत शरीर पड़ा है। कल ही तो उनकी मृत्यु हुई है।
कोफ़िन यानी शव-पेटी के सामने खड़े पंडित जी और उनकी ओर मुख़ातिब कोई एक दर्जन संबंधी-गण पंडितजी पंजाबी-मिश्रित हिन्दी-अंग्रेज़ी में कुछ-कुछ बुदबुदाते हैं, "नैनम्‍ छिन्दति शस्त्राणि नैनम्‍ दहति पावकः" जैसी को चीज़। उपस्थितों में कोई भी उनकी बात नहीं समझ रहा है, पर सब लोग समझने का बहाना सा बना रहे हैं। उनके पुत्र-पुत्रवधू के मुख पर बेचैनी ज़्यादा, शोक कम है। करीब-करीब वैसे ही भाव सबों के चेहरे पर हैं, पत्नी, बेटी-दामाद, सबके चेहरे पर। एक मित्र और उनकी पत्नी ज़रूर ही शोक-मग्न लग रही हैं। मैं इन लोगों को नहीं जानता। पर ब्रिगेडियर साहब को तो बहुत दिनों से जानता हूँ।
पंडित जी व्याख्यान दे रहे हैं: "ईश्वर को याद कीजिये, वही सब करता है, ईश्वर मीन्स गौड, जी ओ डी, गौड, गौड, जी से जेनेरेटर, याने बनाने वाला, ओ से ओपरेटर याने चलाने वाला और डी से डिस्ट्रायर, याने संहार करने वाला, इसीलिये तो उसे अंग्रेज़ी में गौड कहते हैं। अरे, इन अंग्रेज़ों ने हमारे धरम से ही तो लिया है यह गौड का कान्सेप्ट। यही गौड हमारा ब्रह्मा, याने बनाने वाला, विष्णु, याने चलाने वाला और शिव याने संहार करने वाला है।"
मैं पंडित जी के इस भौंडे व्याख्यान को सुन-सुन कर ऊब चुका हूँ। अब गुस्सा भी आ रहा है। मेरा मन इन्हीं ख़्यालों में डूबता-उतरता २६ साल पहले के ब्रिगेडियर बहल में उलझ जाता है।
तब वे कर्नल बने ही थे। मेरे बटालियन कमांडर बन कर आये थे। छः फुट लम्बा कसरती बदन, यही ४० के आस-पास रहे होंगे। गर्वीले चेहरे पर नुकीली मूँछें, १९७१ की लड़ाई में उन्हें अदम्य साहस के लिए वीर-चक्र मिला था। मुझे याद है कि जब उनकी पोस्टिंग हो कर आई थी तो मैं अभी-अभी कप्तान बना था। उनके वीर-चक्र के तमगे के कार्ण मेरे मन में उनके प्रती इज़्ज़त तो पहले से ही काफी थी, उनसे मिलकर वह और दुगुनी हो गई। आते ही दूसरे ही दिन अफ़सर मेस में उन्होंने मुझसे पूछा था, "सुना है पंडित तुम कम्पनी के साथ दौड़ते हो?"
मैंने कुछ घबराते हुए, कुछ गर्व से कहा था, "हाँ सर।"
मैं पल्टन का "पंडित" था; मैं, याने कैप्टेन नवल किशोर पाण्डेय। मुझे सभी फौजी साथी पंडित या किशोर कहकर बुलाते थे।
चीकू, सर, याने मेजर चोकालिंगम, हमारे एडजुटेन्ट थे। उन्होंने ठहाका लगाया, "सर, यह पंडित दौड़ता ही नहीं, सबसे तेज़ दौड़ता है।" मैं सोच रहा था, इस चीकू के बच्चे को आज फिर चढ़ गई है। वैसे तो यह हमेशा पिये रहता है, आज लगता है इसे कुछ ज़्यादा ही चढ़ी है।
"अच्छा तो बच्चू, कल हो जाय हमारी तुम्हारी दौड़।" कर्नल बहल ने कहा था। मैं मन ही मन तेज़ी को कोस रहा था, कहाँ फँसा दिया इस चीकू के बच्चे ने मुझे?
मैंने झेंपते हुए कहा था, "सर ऐसा कुछ नहीं है, ये चीकू सर ऐसे ही कहते हैं। मैं तेज़-वेज़ नहीं दौड़ता, पर आप कहते हैं तो सुबह लेफ़्टिनेन्ट वर्मा को कम्पनी के साथ भेजकर आपके साथ दौड़ने चलूँगा।"
और सुबह की दौड़... बहल साहब उस दिन खूब दौड़े। फौज में ३५ की उम्र के बाद ८ मील दौड़ना पड़ता है, बाकी दस मील। कालूचक–जम्मू सड़क पर चार मील दौड़ने के बाद उन्होंने कहा था, "मुझे भी तू दस मील दौड़ायेगा क्या?"
मैंने कहा, "सर चाहें तो चलते हैं, नहीं तो यहीं से लौट चलें।"
"अरे नहीं यार, आगे चलेंगे।" और हम दौड़ते रहे।
जब अफ़सर मेस में लौटे तो हाँफते–हाँफते उन्होंने चीकू को बुलाया था, "एडजुटेन्ट साहेब, यार इस पंडित में तो बहुत दम है, पर मैं भी कोई कम नहीं हूँ"। फिर मेस–हवलदार रामास्वामी पर चिल्लाते हुये बोले, "अरे ओ रामास्वामी, आज से सारे बचे–खुचे अंडे इस पंडित को खिला दिया कर, नहीं तो एक दिन हम तेरे कप्तान साहब को दौड़ में पछाड़ देंगे।"
रामास्वामी और चीकू हँसते रहे और हमारी दौड़ की थकान धीरे–धीरे ठहाकों में डूब गई। तब से हम जूनियर सीनियर अफसर कम थे, दोस्त ज़्यादा।
इसलिये जब मिसेज बहल पलटन में आई तो मैं उनके परिवार का एक सदस्य बन कर रह गया था। दो बेटियाँ और बेटा संजय, सबसे छोटा। बड़ी बेटी की शादी उसी साल दिल्ली करके आयी थी मिसेज बहल। दूसरी बेटी, अठारह वर्षीय सोनम, साथ लाईं थीं। संजय कोई दस–बारह का रहा होगा।
याद नहीं आ रहा है कि यह सोनम की युवा उम्र का आकर्षण था या कर्नल बहल की अक्खड़ आत्मीयता, जो मुझे उनके पास ज़्यादा खींचती गई। धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व के कई पहलू सामने आये... एकदम निर्भय... अल्हड़ व्यक्तित्व। डेरा बाबा–गाज़ी खाँ में जन्मे, १९४७ में सब कुछ लुटाकर दिल्ली की सड़कों पर शरणार्थी बने इस युवक में भारत के प्रति अगाढ़ निष्ठा स्वाभाविक थी, अपने देश पर गर्व स्वाभाविक था। उनकी इस अलहड़ निर्भयता तथा वीरोचित कृत्यों का दर्शन भारत की जनता को १९७१ की लड़ाई में हुआ था।
मेरी पलटन में, कर्नल साहब अफ़सरों के बीच अपनी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा तथा अनुशासन के लिये प्रसिद्ध थे। जवानों के प्रति उनकी सहानुभूति देखने लायक थी। जाने कितने जवानों को उन्होंने अपनी तनख़ाह से पैसे निकालकर उनके बच्चों की शादी, खिलौने आदि के लिये दिये होंगे। ब्रिगेडियर बनने वाली ट्रेनिंग, एच सी कोर्स, यानि हायर कमान्डर कोर्स के लिये जाते वक्त उनके इन गुणों के कारण लोगों का प्यार जैसे उमड़ पड़ा था। स्टेशन पर उन्हें बिदाई की सलामी देने हमारी अपनी पलटन के हज़ार लोग ही नहीं, बल्कि दूसरी कई पलटनों के अफसर तथा जवान भी उपस्थित हुये थे। विदाई में सलामी में एटेन्शन की मुद्रा में खड़ी वह हज़ारों की भीड़... ।
और आज इस अन्तिम विदाई में... जम्मू–कालूचक से बहुत दूर... इस अनजान जगह में, मुठ्ठी भर, बस एक दर्जन लोग...।
उस दिन जो हमारे रास्ते अलग हुये वे एक दिन फिर अमेरिका आकर मिले। उनके एक भाई अमेरिका में थे, जिन्होंने बहल साहब को बुलाया। सोनम की शादी एक फौजी अफसर के साथ करके, उसका परिवार बसा के, यहाँ आ गये थे, अमेरिका में, संजय का भविष्य बनाने।
आने के तीन चार महीने बाद ही उन्हें मेरे बारे में पता चला तो अचानक मुझे फोन किया। वही अक्खड़पन, वही उन्मुक्त आत्मीयता... उनके दिल की गर्मी को, दूरी के बावजूद भी मैं अपने पोर–पोर में महसूस कर रहा था। मैं तो गदगद था, वे भी बड़े खुश लग रहे थे। इतने दिनों की बिछड़ी यादों को ताज़ा करते, मेरी, अपनी, पोस्टिंग को पूछते बताते, उन्होंने घंटों फोन पर बात की।
कहते रहे, "यार पंडित, अब तो मैं यहाँ आ ही गया... चाहता हूँ किसी तरह संजय का जीवन बन जाय तो मुझे फुर्सत हो जाय। वहाँ दिल्ली में बड़े अच्छे कालेज से बी ए किया पर नौकरी के कोई आसार नहीं थे, फौज में यह जाना नहीं चाहता था। अतः यही एक रास्ता दिखा। शायद यहाँ सेटल होने का चान्स मिल जाय।"
मैंने पूछा था, "वह तो ठीक हैं संजय की पढ़ाई के लिये कुछ न कुछ तो पैसे चाहिये ही होंगे? आप क्या कोई नौकरी करोगे या कर रहे हो?"
वे हँसते हुये, मेरे बिहारीपने को याद दिलाते हुये, बोले "तेरी पुरानी आदत गई नहीं है बबुआ, अब भी दूसरों की फिकर नहीं जाती। इतना सोच रहा है मेरे बारे में, क्या कोई नौकरी दिलवायेगा?
मैंने तो अपनी नौकरी ढूँढ़ ली है। कब तक बैठा रहता, महीनों निठल्ला था, पर मन नहीं लगा और पैसों की भी ज़रूरत महसूस होने लगी थी। बाकी कुछ तो इस उमर में मिला नहीं, एक टेक्नीशियन की नौकरी कर ली है।"
उनके मन का दर्द उनकी आवाज़ में अब झलकने लगा था। मेरे मन में भी एक टीस सी उठी थी, मैं मन ही मन सोच रहा था इंजीनियरिंग कालेज का टापर, कोर ऑफ इंजीनियर्स का ब्रिगेडियर, किस तरह अपने गरूर को ताक पर रख कर टेक्नीशियन की नौकरी करता होगा।
वे शायद मेरी चुप्पी के चलते मेरे मन का दर्द भाँप गये थे, बोलते गये "बड़ी कोशिश की, इस उमर में कोई नई चीज़ पढ़ भी नहीं सकता और यहाँ इस देश की डिग्री के बिना कोई इज़्ज़त की नौकरी भी नहीं मिलती। खैर संजय अच्छा कर रहा है, यही मेरी उपलब्धि है।"
आज उस फोन–कॉल को कोई दस वर्ष बीत गये हैं। बहल साहब की बात ठीक निकली। जो संजय वहाँ बी. ए. करके साल भर निठल्ला बैठा था, वही दो साल में एम.बी.ए. करके एक छोटी कम्पनी में बड़ी अच्छी नौकरी में लग गया है। पिछले वर्ष वह वाइस–प्रेसिडेन्ट भी बन गया है। कम्पनी बढ़ती गई, वह भी बढ़ता गया। अब उसके उपर बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं। हफ्तों बिज़नेस के कारण दौरों पर रहना पड़ता है। शादी भी हो गई।
शादी कराकर जब बहल साहब भारत से लौटे थे तो मेरे घर आये थे। बातचीत में कुछ पुरानी यादें फिर लौट आईं, और उन्हें अपने पुराना गाँव का मदरसा याद आने लगा था।
जीवन की मजबूर घड़ियों में हम सब यादों का दामन थाम कर पता नहीं क्यों अतीत की गोद में छुप जाना चाहते है... शायद इसलिये कि उस गोद में... केवल उसी गोद में... हमें अपनापन मिलता है, बाकी सब दुनिया तो औरों की है न। वर्तमान जीवन के थपेड़े देता है, और भविष्य अगली पीढ़ी के लिये सुरक्षित है। केवल अतीत ही अपना है। अतीत की यादें आम आदमी को जीवन के दर्शन की ओर उड़ा ले जाती हैं। बहल साहब, प्रसिद्ध कवि जौक की पंक्तियाँ, जो कभी बचपन में मदरसे में सुनी थी, गुनने–गुनगुनाने लगे थे-
लाई हयात आये, कज़ा ले चली, चले।
अपनी ख़ुशी न आये, न अपनी ख़ुशी चले।
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे।
पर क्या करें जो काम ना बे दिल लगी चले?
दुनिया में किसने राहे फ़ना में दिया है साथ?
तुम भी चले चलो यूँ ही, जब तक चली चले।

संजय ने कल सुबह ही फोन किया था, "कैप्टेन किशोर, मेरे डैडी नहीं रहे। ही पास्ड अवे लास्ट नाइट।"
मुझे एक धक्का सा लगा था।
मैंने पूछा था, "कैसे? क्यों, क्या हुआ था? पिछले वीक–एन्ड को अस्पताल में उनसे मिलने गये थे तब तो वे एकदम ठीक लग रहे थे, घर जाने वाले थे।"
"हाँ, वे तो घर आ भी गये थे, ठीक–ठाक ही थे। इधर परसों थोड़ी तबीयत खराब हुई, मैंने कहा कि चलिये अस्पताल। पर पता नहीं क्यों जाने से मना कर दिया। माँ ने भी कहा, पर अपनी ज़िद पर अड़े रहे। वहाँ नहीं जाना मुझे, वहाँ जाकर क्या करूँगा, कितनी बार तो हो आया हूँ। मुझे मालूम है मुझे क्या बीमारी है.। वहाँ जाने पर ये सारे डाक्टर मेरा बदन काट–कूट कर मुझे जिलाने की कोशिश करेंगे। क्या करूँगा ऐसे जीकर मैं?' आदि आदि बोलते रहे, "आप तो जानते ही हैं, डैडी बड़े ज़िद्दी थे।"
"हाँ, जानता हूँ, मैंने मन ही मन सोचा था। जीवन भर आत्म–निर्भर रहने वाले इस आदमी को जीवन की सारी उपलब्धियों के बावजूद, दूसरों पर बोझ बन कर रहना अपनी अस्मिता के ख़िलाफ़ लग रहा था। वे किसी पर निर्भर रहकर जीना नहीं चाहते थे। सब कुछ तो उपलब्ध हो ही गया था उन्हें।
पिछले शनिवार को जब मिलने गया था अस्पताल में तो कहने लगे थे, "यार, अब सब कुछ तो हो ही गया है, बच्चे सब सेटल हो गये। सबका अपना अपना परिवार है, नौकरियाँ हैं। सब अपने में व्यस्त हैं। यही मेरी उपलब्धियाँ हैं। और क्या चाहिये? अब तो भगवान जितनी जल्दी अपने यहाँ बुला ले उतना अच्छा है... नहीं तो मारा–मारा फिरूँगा, बच्चों पर बोझ बन कर।"... इन बातों के पीछे छिपा यथार्थ, उनकी मौत की ख़बर सुनने के बाद मेरे सामने जैसे साक्षात खड़ा हो गया था।
अपने को संयत करते हुये, मैं संजय से पूछता हूँ, "माँ कैसी है?"
"माँ तो कुछ बोलती ही नहीं।"
"अच्छा मैं अभी आता हूँ।"
संजय के स्वर में बड़ी घबराहट थी, अनुनय था... "किशोर जी, मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है, क्या-क्या करना होगा, डेड–बौडी के साथ। और मुझे परसों ही मैक्सिको जाना है, दो मिलियन के कान्ट्रेक्ट का सवाल है, मैंने ही निगोशियेट किया है।"
डेड–बौडी वाली बात पर एक वितृष्णा सी होती है मन में। एक कसैलापन, एक आक्रोश, पता नहीं किस पर, पता नहीं क्यों?
मैं दो चार लोगों को फोन कर पंडित जी का पता लगाता हूँ। यहाँ पंडित बड़ी कठिनाई से मिलते हैं। वह भी श्राद्ध कराने के लिये। हिन्दुत्व के कर्म–काण्ड भी तो उलझे हुये हैं, तमिल पंडित, पंजाबी हिन्दू का दाह–संस्कार करने के लिये जल्दी तैयार नहीं होता। परिवार को भी लगता है, उनके प्रियजन की समुचित क्रिया नहीं हुई। जो पंडित जी मिले, उन्होंने कहा कि उन्हें पहले से ही चार जगहों पर जाना है। पर ग्यारह बजे वे कुछ समय निकाल पायेंगे। मैंने धन्यवाद दिया... इन्हीं खयालों में डूबा हूँ कि सामने हलचल होती है।
पंडित जी जोर-शोर से कुछ पढ़ रहे हैं... नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि। वहीं घिसा–पिटा श्लोक। अब शव–पेटी बन्द की जा रही है। मैं झटक कर बहल साहब को एक अन्तिम प्रणाम करता हूँ... उनकी उजली मूँछें वैसी ही दीख रही हैं तनी हुई... चेहरे पर लगता है एक गौरवमय शान्ति... शव–पेटी बन्द हो गई है। उसे दो अमेरिकन ले जा रहे हैं बगल के कमरे में जहाँ भट्टी है, जलाने वाली।
दोनों आपस में बातें कर रहे हैं... 'पहले सिर वाला हिस्से आगे करो, सिर जलने में ज़्यादा वक्त लगता है" मुझे "सत्य हरिश्चन्द्र" नाटक के जल्लाद याद आते हैं। मिसेज बहल रो रही है... मेरी ओर मुख़ातिब होकर कहती है... । 'सिर तो उत्तर की तरफ होना चाहिये न?'... अब तक मैं संयत था, पर मिसेज बहल का यह वाक्य मुझे भी रुला जाता है... मैं चुपचाप सिसकता खड़ा हूँ... पर सब जल्दी में हैं, जल्लाद, बेटा, सब। दुनिया का क्रम एक क्षण थम नहीं सकता।
संजय का प्लेन दो बजे है, वह जल्दी में हैं। बीबी पर सब छोड़ वह चला गया है। बाकी सब जाने को तैयार बैठे हैं। मैं भी चलूँ। मैंने भी तो आधे दिन ही ऑफ लिया था न।
पतझड़ के इस मौसम में हवा कभी मन्द, कभी ज़ोरों से चल रही है। लाल–पीले सूखे पत्ते हर जगह उड़ रहे हैं। मेरी कार मेरे ऑफिस की ओर जा रही है, मैं अनमना, पता नहीं क्या सोच रहा हूँ, जीवन... बहल साहब का, अपना... और इस जीवन की उपलब्धियाँ, आदि–आदि। हवा साँय–साँय कर रही है, मुझे बहल साहब द्वारा सुनाई गयी कवि जौक की आखिरी पंक्तियाँ याद आ रही हैं :
जाते हवाये–शौक में हैं, इस चमन से जौक,
अपनी बला से बादे–सबा अब कभी चले। 

(सुरेन्द्रनाथ तिवारी)

अपराध बोध


इस बात को काफी अरसा बीत गया है। शायद पैंतीस छतीस साल पहले की बात है। उस समय वे नौ या दस साल का रहा होगा। उसने एक चीनी कहानी पढ़ी थी। वह कहानी तो उसे पूरी तरह से याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि कहानी में एक आदमी शहर से कहीं दूर एक ऐसी जगह फँस जाता है जहाँ दलदल और गंदे पानी तथा फिसलन भरे पत्थरों पर जमी काई और झाड़ियों के सिवा कुछ नहीं था। वो वहाँ से निकलना चाहता है पर निकल नहीं पाता। फिर एक दिन उसकी नज़र अचानक अपने हाथ पर जाती है। उसके हाथ पर काई उगने लगी थी। वो आदमी हाथ पर जम आई काई को नोच कर फेंकता है। लेकिन जितना ही वह आदमी काई को नोच कर फेंकने की कोशिश करता है, उतनी ही वे लिजलिजी काई उसके शरीर के दूसरे हिस्सों पर उगने लगती है। फिर काई के लच्छे उसके पूरे शरीर पर उग आते हैं। वह अपने आप से भागने लगता है। कहानी के अन्त में क्या हुया यह तो उसको भूल गया था पर वह कहानी कई दिनों तक उसके मानस पटल पर छाई रही थी। यहाँ तक की कई बार स्वप्न में वह उस आदमी की जगह अपने को देखता था और डर कर उठ जाता। तब वह उस कहानी का अर्थ पूरी तरह समझ नहीं पाया था।
आज वर्षों पश्चात उसे लगता है उस आदमी के हालात में और खुद उसकी

अंतहीन जीवन यात्रा


पैसों से भरा बैग उठाए बाऊजी आज क्या तनकर चल रहे हैं। मानो उम्र के बीस साल पीछे छोड़ आए हों। आखिर उनकी छाती चौड़ी क्यों नहीं होगी...? चारों बेटों की शादी करके घर में चार चार बहुएँ आ गई हैं। आज ही चौथी बहू दिव्या की डोली आई है। बहुत शानदार शादी हुई है दिल्ली के फाईव स्टार होटल में। भई यह शादी तो पूरे खानदान में एक मिसाल बन गई है। उस के ननिहाल ईरान में हैं। पिता का भी मद्रास में अच्छा ख़ासा व्यापार है उसी के अनुरूप दहेज भी बहुत ला रही थी। अब तो बाऊजी के पास भी बहुत पैसा है उनसे किसी बात में उन्नीस नहीं हैं। बहू के चढ़ावे में गहने भी देखने लायक थे। इसीलिए इस शादी पर बाकी  तीन बहुओं को भी भारी भारी सैट बनवा दिए गए थे। सजी धजी बीरो के भी खुशी के मारे ज़मीन पर पाँव नहीं टिक रहे हैं।

कभी वो भी दिन थे जवानी के......जब कपड़े के थान के गठ्ठर साईकिल पर रखकर धनपत घर घर जाकर कपड़ा बेचता था। बीरो से ब्याह करते ही

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