Saturday, January 07, 2012

आओ !!! डूब मरें ...

इस कविता के माध्यम से एक तीखा कटाक्ष किया है इस समाज पर 


आओ !!!
डूब मरें ....

जब कायर

नपुंसक
बेशर्म
और मुर्दादिल जैसे शब्द 
हमें झकझोरने में 
हो जाएँ बेअसर
घिघियाना 
गिड़गिडाना 
और लात जूते खाकर भी 
तलवे चाटना
बन जाए हमारी आदत
अपने को मिटा देने की सीमा तक
हम हो जाएँ समझौतावादी

तो आओ !!!

डूब मरें.... 


जब खून में उबाल आना

हो जाए बंद
भीतर महसूस न हो 
आग की तपिश
जब दिखाई न दे
जीने का कोई औचित्य
कीड़े- मकौडों का जीवन भी
लगने लगे हमसे बेहतर 
हम बनकर रह जाएँ केवल
जनगणना के आंकड़े 
राजनितिक जलसों में 
किराए की भीड़ से ज्यादा 
न हो हमारी अहमियत

तो आओ !!!

डूब मरें...

जब हमारी मुर्दानगी के परिणामस्वरूप

सत्ता हो जाए स्वेच्छाचारी 
हमारी आत्मघाती सहनशीलता के कारण 
व्यवस्था बन जाए आदमखोर 
जब धर्म और राजनीति के बहुरूपिये
जाति और मज़हब की अफीम खिलाकर
हमें आपस में लड़ाकर 
' बुल फाईट ' का लें मजा
ताली पीट - पीटकर हँसे 
हमारी मूर्खता पर 
और हम
उनकी स्वार्थ सिद्धि हेतु
मरने या मारने पर 
हो जाएँ उतारू

तो आओ !!!

डूब मरें...

इससे पहले कि 

इतिहास में दर्ज हो जाए 
मुर्दा कौम के रूप में 
हमारी पहचान
राष्ट्र बन जाए 
बाज़ार का पर्याय
जहाँ हर चीज हो बिकाऊ
बड़ी- बड़ी शोहरतें
बिकने को हों तैयार
लोग कर रहे हों
अपनी बारी का इन्तजार
जहाँ बिक रही हो आस्था
बिक रहा ईमान 
बिक रहे हों मंत्री 
बिक रहे दरबान
धर्म और न्याय की
सजी हो दूकान
सौदेबाज़ों की नज़र में हों
संसद और संविधान
देश बेचने का 
चल रहा हो खेल
और हम सो रहे हों
कान में डाले तेल

तो आओ !!!

डूब मरें.....

जब आजाद भारत का अंगरेजी तंत्र

हिन्दी को मारने का रचे षड़यंत्र
करे देवनागरी को तिरस्कृत
मातृभाषा को अपमानित
उडाये भारतीय संस्कृति का उपहास
पश्चिमी सभ्यता का क्रीतदास
लगाये भारत के मस्तक पर 
अंगरेजी का चरणरज
तब इस तंत्र में शामिल 
नमक हरमों को 
देशद्रोही, गद्दारों को
कूड़ेदान में फेंकने के बदले
अगर हम बैठाएं सिर- आँखों पर
करें उनका जय-जयकार 
गुलामी स्वीकार

तो आओ !!!

डूब मरें...

जब सरस्वती के आसन पर हो 

उल्लुओं का कब्ज़ा 
भ्रष्ट, मक्कार और अपराधी
उच्च पदों पर हों प्रतिष्ठित
मानवतावादियों को दी जाए
आजीवन कारावास की सजा 
हिंसा को धर्म मानने वाले 
रच रहें हों देश को तोड़ने की साज़िश 
और हम तटस्थ हो
बन रहें हों बारूदी गंध के आदी
हथियारबंद जंगलों में 
उग रही हो आतंक की पौध
हथियारों की फसल 
लूट ,हत्या बलात्कार
बन गएँ हों दैनिक कर्म
तो गांधी से आँखें चुराते हुए

आओ !!!

डूब मरें...

जब सत्य बोलते समय

तालू से चिपक जाए जीभ
दूसरे को प्रताड़ित होता देख
हम इतरायें अपनी कुशलता पर
समृद्धि पाने के लिए
बेच दें अपनी आदमियत
जब भूख से दम तोड़ते लोग 
कुत्तों द्वारा छोडी हड्डियाँ चूसकर 
जान बचाने की कर रहे हों कोशिश
खतरनाक जगहों, घरों, ढाबों में
काम करते बच्चे 
पूछ रहे हों प्रश्न -
पैदा क्यों किया?
बचपन क्यों छीना?
हमसे कोई प्यार क्यों नहीं करता?
तब आप चाहें हों
किसी भी दल के समर्थक
विकास के दावे पर थूकते हुए
होते हुए शर्मशार

आओ !!!

डूब मरें...

और जब

टूटती उमीदों के बीच
आकस्मात 
कोई लेकर निकल पड़े मशाल
अँधेरे को ललकार
लगा दे जीवन को दांव पर
तो उस निष्पाप, पुण्यात्मा को 
यदि हम दे न सकें
अपना समर्थन
मिला न सकें
उसकी आवाज़ में आवाज़
चल न सकें दो कदम उसके साथ 
अन्धकार से डरकर
छिप जाएँ बिलों में
बंद कर लें कपाट
तो यह
अक्षम्य अपराध है
अँधेरे के पक्ष में खड़े होने का
षड़यंत्र है
उजाले को रोकने का
इसलिए लोकतंत्र को
अंधेरों के हवाले करने से पहले

आओ !!!

डूब मरें....

________poem by uperndra kumar mishr

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