Sunday, March 25, 2012

नींव का पत्थर


दीखते नहीं 
पर 
सहते हैं 
सारा बोझ 
ईमारत का .....

खिड़की 
दरवाज़े 
और कंगूरे 
ये तो बस 
यूँ ही इतराते रहते हैं ..

यही तो 
रीत है जग की 
जो दीखता है 
प्रशंसा पाता  है 
जो मरता है 
भुला दिया जाता है 


(मंजू मिश्रा )

जागो


एक अरब से भी 
अधिक लोग 
जिनकी मुट्ठी में 
सुनहरे सपनों की सुबह क़ैद है 
क्या इतने बेचारे हैं 
कि चंद खूनी  भेड़िये 
अपना खेल खेलते हैं
और लोग सिर्फ देखते हैं 
थोडा हो-हल्ला करते हैं 
फिर रोज़ मर्राह की 
ज़िन्दगी में रम  जाते हैं 
लेकिन ये भूल जाते हैं 
कि ये नपुंसक विचारधारा,
इक्का दुक्का बचे हुए 
बेदाग़ और ईमानदार
लोगों की नस्ल को 
ख़तम कर रही है 

जागो 

वर्ना तरस जाओगे 
सच्चाई , ईमानदारी और 
नैतिकता के दर्शन को 

(मंजू मिश्रा )

ज़िन्दगी को कुछ हो गया है

भाग दौड़ और भीड़ भाड़  नें 

छीन ली संवेदनाएं

अब नहीं होती 

सिरहन बदन में   

स्पर्शों का रोमांच

जैसे खो गया है 

ज़िन्दगी को, 

हाँ 

ज़िन्दगी को , कुछ हो गया है .....

(मंजू मिश्रा )

सुख की पावना

समय 

जब अपनी बही खोलकर बैठा 

हिसाब करने 

तो

मैं सोच में पड़  गयी 

पता ही नहीं चला 

कब 

मुट्ठी भर सुख की पावना

इतनी  बढ़ गयी  कि 

सारी  उम्र बीत गयी

सूद चुकाते चुकाते  

मूल फिर भी 

जस का तस ......


(मंजू मिश्रा )

Aazmaayshein.........आजमाईशे


aazmaaishein na hon
आजमाईशे न हों 

to
तो 

insaan ka kharapan
इन्सान का खरापन 

nazar nahi aata
नज़र नहीं आता 

vaise, theek bhi hai
वैसे ठीक  भी है 

isi bahaane insaan
इसी बहाने इंसान 

khud ko bhi parakh leita hai
खुद को भी परख लेता है 

aur apne paanv taley ki
और अपने पाँव तले की 

zameen bhi....
ज़मीन भी ....




 (Manju Mishra)