एक अरब से भी अधिक लोग जिनकी मुट्ठी में सुनहरे सपनों की सुबह क़ैद है क्या इतने बेचारे हैं कि चंद खूनी भेड़िये अपना खेल खेलते हैं
और लोग सिर्फ देखते हैं थोडा हो-हल्ला करते हैं फिर रोज़ मर्राह की ज़िन्दगी में रम जाते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि ये नपुंसक विचारधारा, इक्का दुक्का बचे हुए बेदाग़ और ईमानदार लोगों की नस्ल को ख़तम कर रही है
जागो वर्ना तरस जाओगे सच्चाई , ईमानदारी और नैतिकता के दर्शन को
जब अपनी बही खोलकर बैठा हिसाब करने तो मैं सोच में पड़ गयी पता ही नहीं चला कब मुट्ठी भर सुख की पावना इतनी बढ़ गयी कि सारी उम्र बीत गयी सूद चुकाते चुकाते मूल फिर भी जस का तस ......