Tuesday, October 09, 2012

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की कहानी------बदला

अंधेरे डिब्बे में जल्दी-जल्दी सामान ठेल, गोद के आबिद को खिड़की से भीतर सीट पर पटक, बड़ी लड़की जुबैदा को चढ़ा कर सुरैया ने स्वयं भीतर घुस कर गाड़ी के चलने के साथ-साथ लम्बी साँस ले कर पाक परवर्दिगार को याद किया ही था कि उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो आकार बैठे हुए थे, वे अपने मुसलमान भाई नहीं सिख थे! चलती गाड़ी में स्टेशन की बत्तियों से रह-रह कर जो प्रकाश की झलक पड़ती थी, उस में उसे लगा, उन सिखों की स्थिर अपलक आँखों में अमानुषी कुछ है। उन की दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उस की काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है; और तेज धार-सा एक अलगाव उन में है, जिसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा! रोशनी इस के लिए काफी नहीं थी, पर सुरैया ने मानो कल्पना की दृष्टि से देखा कि उन आँखों में लाल-लाल डोरे पड़े हैं, और…और…वह डर से सिहर गयी। पर गाड़ी तेज चल रही थी, अब दूसरे डिब्बे में जाना असम्भव था। कूद पड़ना एक उपाय होता, किन्तु उतनी तेज गति में बच्चे-कच्चे लेकर कूदने से किसी दूसरे यात्री द्वारा उठा कर बाहर फेंक दिया जाना क्या बहुत बदतर होगा? यह सोचती और
ऊपर से झूलती हुई खतरे की चेन के हैंडिल को देखती हुई वह अनिश्चित-सी बैठ गयी…आगे स्टेशन पर देखा जाएगा…एक स्टेशन तक तो कोई खतरा नहीं है कम से कम अभी तक तो कोई वारदात इस हिस्से हुई नहीं…

“आप कहाँ तक जाएँगी?”

सुरैया चौंकी। बड़ा सिख पूछ रहा था। कितनी भारी उस की आवांज थी! जो शायद दो स्टेशन के बाद उसे मार कर ट्रेन से बाहर फेंक देगा, वह यहाँ उसे ‘आप’ कह कर सम्बोधन करे, इस की विडम्बना पर वह सोचती रह गयी और उत्तर में देर हो गयी। सिख ने फिर पूछा, “आप कितनी दूर जाएँगी?”

सुरैया ने बुरका मुँह से उठा कर पीछे डाल रखा था, सहसा उसे मुँह पर खींचते हुए कहा, “इटावे जा रही हूं।”

सिख ने क्षण-भर सोच कर कहा, “साथ कोई नहीं है?”

उस तनिक-सी देर को लक्ष्य कर के सुरैया ने सोचा, ‘हिसाब लगा रहा है कि कितना वंक्त मिलेगा मुझे मारने के लिए…या रब, अगले स्टेशन पर कोई और सवारियाँ आ जाएँ…और साथ कोई जरूर बताना चाहिए उस से शायद यह डरा रहे! यद्यपि आज-कल के जमाने में वह सफर में साथ क्या जो डिब्बे में साथ न बैठे…कोई छुरा भोंक दे तो अगले स्टेशन तक बैठी रहना कि कोई आ कर खिड़की के सामने खड़ा हो कर पूछेगा, ‘किसी चींज की जरूरत तो नहीं…’

उस ने कहा, “मेरे भाई हैं…दूसरे डिब्बे में…”

आबिद ने चमक कर कहा, “कहाँ माँ? मामू तो लाहौर गये हुए हैं।…”

सुरैया ने उसे बड़ी जोर से डपट कर कहा, “चुप रह!”

थोड़ी देर बाद सिख ने फिर पूछा “इटावे में आप के अपने लोग हैं?”

“हाँ।”

सिख फिर चुप रहा। थोड़ी देर बाद बोला, “आप के भाई को आप के साथ बैठना चाहिए था; आज-कल के हालात में कोई अपनों से अलग बैठता है?”

सुरैया मन ही मन सोचने लगी कि कहीं कम्बख्त ताड़ तो नहीं गया कि मेरे साथ कोई नहीं है!

सिख ने मानो अपने-आप से ही कहा, “पर मुसीबत में किसी का कोई नहीं है, सब अपने ही अपने हैं…”

गाड़ी की चाल धीमी हो गयी। छोटा स्टेशन था। सुरैया असमंजस में बैठी थी कि उतरे या बैठी रहे? दो आदमी डिब्बे में और चढ़ आये सुरैया के मन ने तुरन्त कहा, ‘हिन्दू’ और तब वह सचमुच और भी डर गयी, और थैली-पोटली समेटने लगी।

सिख ने कहा, “आप क्या उतरेंगी?”

“सोचती हूं भाई के पास जा बैठूँ…”क्या जीव है इनसान कि ऐसे मौके पर भी झूठ की टट्टी की आड़ बनाए रखता है…और कितनी झीनी आड़, क्योंकि डिब्बा बदलवाने भाई स्वयं न आता? आता कहाँ से, हो जब न?…

सिख ने कहा, “आप बैठी रहिये। यहाँ आप को कोई डर नहीं है। मैं आप को अपनी बहन समझता हूं और इन्हें अपने बच्चे…आप को अलीगढ़ तक ठीक-ठीक मैं पहुँचा दूँगा। उस से आगे खतरा भी नहीं है, और वहाँ से आप के भाई-बन्द भी गाड़ी में आ ही जाएंगे।”

एक हिन्दू ने कहा, “सरदारजी, जाती है तो जाने दो न, आप को क्या?”

सुरैया न सोच पायी कि सिख की बात को, और इस हिन्दू की टिप्पणी को किस अर्थ में ले, पर गाड़ी ने चल कर फैसला कर दिया। वह बैठ गयी।

हिन्दू ने पूछा, “सरदार जी, आप पंजाब से आये हो?”

“जी।”

“कहाँ घर है आप का?”

“शेखपुरे में था। अब यहीं समझ लीजिए…”

“यहीं? क्या मतलब?”

“जहाँ मैं हूं, वही घर है! रेल के डिब्बे का कोना।”

हिन्दू ने स्वर को कुछ संयत कर, जैसा गिलास में थोड़ी-सी हमदर्दी उंड़ेल कर सिख की ओर बढ़ाते हुए कहा, “तब तो आप शरणार्थी हैं…”

सिख ने मानो गिलास को ‘जी, मैं नहीं पीता’ कह कर ठेलते हुए, एक सूखी हँसी हँस कर कहा, जिसकी अनुगूँज हिन्दू महाशय के कान नहीं पकड़ सके, “जी।”

हिन्दू महाशय ने तनिक और दिलचस्पी के साथ कहा, “आप के घर के लोगों पर तो बहुत बुरी बीती होगी…”

सिख की आँखों में एक पल के अंश-भर के लिए अंगार चमक गया, पर वह इस दाने को भी चुगने न बढ़ा। चुप रहा। हिन्दू ने सुरैया की ओर देखते हुए कहा, “दिल्ली में कुछ लोग बताते थे, वहाँ उन्होंने क्या-क्या जुल्म किये हैं हिन्दुओं और सिक्खों पर। कैसी-कैसी बातें वे बताते थे, क्या बताऊं, जबान पर लाते शर्म आती है। औरतों को नंगा कर के…”

सिख ने अपने पास पोटली बन कर बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा, “काका, तुम ऊपर चढ़ कर सो रहो।” स्पष्ट ही वह सिख का लड़का था, और जब उस ने आदेश पा कर उठ कर अपने सोलह-सत्रह बरस के छरहरे बदन को अँगड़ाई में सीधा कर ऊपरी बर्थ की ओर देखा, तब उस की आँखों में भी पिता की आखों का प्रतिबिम्ब झलक आया। वह ऊपरी बर्थ पर चढ़ कर लेट गया, नीचे सिख ने अपनी टाँगें सीधी की और खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा।

हिन्दू महाशय की बात बीच में रुक गयी थी, उन्होंने फिर आरम्भ किया, “बाप-भाइयों के सामने ही बेटियों-बहनों को नंगा कर के…”

सिख ने कहा, “बाबू साहब, हम ने जो देखा है वह आप हमीं को क्या बताएँगे…” इस बार वह अनुगूँज पहले से ही स्पष्ट थी, लेकिन हिन्दू महाशय ने अब भी नहीं सुनी। मानो शह पा कर बोले, “आप ठीक कहते हैं…हम लोग भला आप का दु:ख कैसे समझ सकते हैं! हमदर्दी हम कर सकते हैं, पर हमदर्दी भी कैसी जब दर्द कितना बड़ा है यही न समझ पाएँ! भला बताइए, हम कैसे पूरी तरह समझ सकते हैं कि उन सिखों के मन पर क्या बीती होगी जिन की आँखों के सामने उन की बहू-बेटियों को…”

सिख ने संयम से काँपते हुए स्वर में कहा, “बहू-बेटियाँ सब की होती हैं, बाबू साहब।”

हिन्दू महाशय तनिक-से अप्रतिभ हुए कि सरदार की बात का ठीक आशय उन की समझ में नहीं आ रहा। किन्तु अधिक देर तक नहीं बोले, “अब तो हिन्दू-सिख भी चेते हैं। बदला लेना बुरा है, लेकिन कहाँ तक कोई सहेगा! इस दिल्ली में तो उन्होंने डट कर मोर्चे लिए हैं, और कहीं कहीं तो ईंट का जवाब पत्थर से देनेवाली मसल सच्ची कर दिखाई है। सच पूछो तो इलाज ही यही है। सुना है करोलबाग में किसी मुसलमान डॉक्टर की लड़की को…”

अब की बार सिख की वाणी में कोई अनुगूँज नहीं थी, एक प्रकट और रड़कनेवाली रुखाई थी। बोला, “बाबू साहब, औरत की बेइज्जती सब के लिए शर्म की बात है। और बहिन…” यहाँ सिख सुरैया की ओर मुखातिब हुआ, “आप से माफी माँगता हूं कि आप को यह सुनना पड़ रहा है।”

हिन्दू महाशय ने अचकचा कर कहा, “क्या-क्या-क्या-क्या? मैंने इन से कुछ थोड़े ही कहा है?” फिर मानो अपने को कुछ संभालते हुए, और ढिठाई से कहा, “ये आप के साथ हैं?”

सिख ने और भी रुखाई से कहा, “जी। अलीगढ़ तक मैं पहुँचा रहा हूं।”

सुरैया के मन में किसी ने कहा, ‘यह बिचारा शरींफ आदमी अलीगढ़ जा रहा है! अलीगढ़-अलीगढ़…’ उस ने साहस कर पूछा, “आप अलीगढ़ उतरेंगे?”

“हाँ।”

“वहाँ कोई हैं आप के?”

“मेरा कहाँ कौन है? लड़का तो मेरे साथ है।”

“वहाँ कैसे जा रहे है? रहेंगे?”

“नहीं, कल लौट आऊँगा।”

“तो…तंफरीहन जा रहे हैं!”

“तंफरीह!” सिख ने खोये-से स्वर में कहा, “तफरीह?” फिर संभल कर, “नहीं, हम कहीं नहीं जा रहे अभी सोच रहे हैं कि कहाँ जाएँ और जब टिकाऊ कुछ न रहे तब चलती गाड़ी में ही कुछ सोचा जा सकता है…”

सुरैया के मन में फिर किसी ने कोंच कर कहा, ‘अलीगढ़…अलीगढ़…बेचारा शरींफ है…”

उस ने कहा, “अलीगढ़…अच्छी जगह नहीं है। आप क्यों जाते हैं?”

हिन्दू महाशय ने भी कहा, जैसे किसी पागल पर तरस खा रहे हों, “भला पूछिए…”

“मुझे क्या अच्छी और क्या बुरी!”

“फिर भी आप को डर नहीं लगता? कोई छुरा ही मार दे रात में…”

सिख ने मुस्करा कर कहा, “उसे कोई नजात समझ सकता है, यह आप ने कभी सोचा है?”

“कैसी बातें करते हैं आप!”

“और क्या! मारेगा भी कौन? या मुसलमान, या हिन्दू। मुसलमान मारेगा, तो जहाँ घर के और सब लोग गये हैं, वहीं मैं भी जा मिलूँगा; और अगर हिन्दू मारेगा, तो सोच लूँगा कि यही कसर बाकी थी देश में जो बीमारी फैली है वह अपने शिखर पर पहुँच गयी और अब तन्दुरुस्ती का रास्ता शुरू होगा।”

“मगर भला हिन्दू क्यों मारेगा? हिन्दू लाख बुरा हो, ऐसा काम नहीं करेगा…”

सरदार को एकाएक गुस्सा चढ़ आया; उस ने तिरस्कारपूर्वक कहा, “रहने दीजिए, बाबू साहब! अभी आप ही जैसे रस ले-ले कर दिल्ली की बातें सुना रहे थे अगर आप के पास छुरा होता और आप को अपने लिए खतरा न होता, तो आप क्या अपने साथ बैठी सवारियों को बंख्श देते? इन्हें या मैं बीच में पड़ता तो मुझे?” हिन्दू महाशय कुछ बोलने को हुए पर हाथ के अधिकारपूर्ण इशारे से उन्हें रोकते हुए सरदार कहता गया, “अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिए कान खोल कर। मुझ से आप हमदर्दी दिखाते हैं कि मैं आप का शरणार्थी हूं। हमदर्दी बड़ी चीज है, मैं अपने को निहाल समझता, अगर आप हमदर्दी देने के काबिल होते। लेकिन आप मेरा दर्द कैसे जान सकते हैं, जब आप उसी साँस में दिल्ली की बातें ऐसे बेदर्द ढंग से करते हैं? मुझ से आप हमदर्दी कर सकते होते उतना दिल आप में होता तो जो बातें आप सुनाना चाहते हैं, उनसे शर्म के मारे आप की जबान बन्द हो गयी होती सिर नीचा हो गया होता! औरत की बेइंज्जती औरत की बेइंज्ज्ती है, वह हिन्दू या मुसलमान की नहीं, वह इनसान की माँ की बेइज्जती है। शेखपुरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआ मगर मैं जानता हूं कि उस का मैं बदला कभी नहीं ले सकता हूँ क्योंकि उसका बदला हो ही नहीं सकता। मैं बदला दे सकता हूं और वह यही, कि मेरे साथ जो हुआ है, वह और किसी के साथ न हो। इसीलिए दिल्ली और अलीगढ़ के बीच इधर और उधर लोगों को पहुँचता हूँ, मैं; मेरे दिन भी कटते हैं और कुछ बदला चुका भी पाता हूँ, और इसी तरह, अगर कोई किसी दिन मार देगा तो बदला पूरा हो जाएगा चाहे मुसलमान मारे, चाहे हिन्दू! मेरा मकसद तो इतना है कि चाहे हिन्दू हो, चाहे सिख हो, चाहे मुसलमान हो, जो मैं ने देखा है वह किसी को न देखना पड़े; और मरने से पहले मेरे घर के लोगों की जो गति हुई, वह परमात्मा न करे किसी की बहू-बेटियों को देखनी पड़े।”

इस के बाद बहुत देर तक गाड़ी में बिलकुल सन्नाटा रहा। अलीगढ़ के पहले जब गाड़ी धीमी हुई, तब सुरैया ने बहुत चाहा कि सरदार से शुक्रिया के दो शब्द कह दे, पर उस के मुँह से भी बोल नहीं निकला।

सरदार ने ही आधे उठ कर ऊपर के बर्थ की ओर पुकारा, “काका, उठो, अलीगढ़ आ गये है।” फिर हिन्दू महाशय की ओर देख कर बोला, “बाबू साहब, कुछ कड़ी बात कह गया हूँ तो माफ करना, हम लोग तो आप की सरन हैं!”

हिन्दू महाशय की मुद्रा से स्पष्ट दिखा  कि वहाँ वह सिख न उतर रहा होता तो स्वयं उतर कर दूसरे डिब्बे में जा बैठते।

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