झूठ,
जब भी बोलता हूँ,
थोड़ा सा गिर जाता हूँ,
अपनी ही नज़रों में,
इस गिरेपन के एहसास को लिए उठता हूँ,
और फिर,
एक और झूठ,
पर घबरा जाता हूँ,
मन में अजीब सा भय,
कुछ किचकिचा सा डर,
जाता है ठहर,
अपने दोस्तों से,
घरवालों से,
सहकर्मियों से,
सबसे,
सीधा सपाट सच कहना,
मन को निर्मल कर के रहना,
इतना कठिन क्यों है,
कितना नीचे पहुँच गया हूँ मैं,
गिरते गिरते,
कैसे कह दूँ की जो कुछ लिख रहा हूँ,
या जो कुछ पढ़ रहा हूँ,
सच है,
या फिर,
झूठ.
(अभिनव शुक्ला )