Thursday, October 11, 2012

खोज का सफ़र...






ऐ दोस्त
तुने क्यूँ  चुना
खुद को खुदकशी के लिये
एक ज़ज्बे के लिए ठीक नहीं होता यूँ कतल हो जाना
एक ही नाटक में कितनी बार मरोगे
आखिर कितनी बार
रिश्तों को बचाते बचाते
खुद को न बचा पाओगे 
वो  रिश्ता होगा
खुदकशी के धरातल पर बना रिश्ता
अपने आप को तोड  कर
क्या तामीर कर रहे हो,
इमारतें  ऐसे नहीं बनती ,
बस करो अब ...
बंद करो यह नाटक ...
कुछ मत बदलो ..
बस ...
शुरू करो अपनी खोज का सफ़र
ज़िन्दगी  लम्बी कहानी का नाम नहीं है
भूल जाओ  किताबों की बातें
खुद से प्यार करो
यही से शुरू होगा ....
खोज का सफ़र

(प्रीत पॉल हुंडल  )

मैं कविता हूँ .....


Photograph by Max Drupka

इस जिंदगी की तेज़ ,
बहुत तेज़ दौड़ती
भागम भाग से हार कर ,
अजनबियत के सायों से परेशान हो कर ,
अकेलेपन को ओढे हुए
मैं . . .
जब भी कभी
किसी थकी-हारी शाम की
उदास दहलीज़ पर आ बैठता हूँ
तो
सामने रक्खे काग़ज़ के टुकडों पर
बिखरे पड़े
बेज़बान से कुछ लम्हे
मुझे निहारने लगते हैं...
मैं . .
उन्हें.. छू लेने की कोशिश में...
अपने होटों पर पसरी
बेजान खामोशी के रेशों को
बुन बुन कर
उन्हें इक लिबास देने लगता हूँ
और वो तमाम बिखरे लम्हे
लफ्ज़-लफ्ज़ बन
सिमटने लगते हैं....
और अचानक ही
इक दर्द-भरी , जानी-पहचानी सी आवाज़
मुझसे कह उठती है ....
मैं... कविता हूँ ...............!
तुम्हारी कविता .............!!
मुझसे बातें करोगे ......!?!


(Danish)