Photograph by Max Drupka |
बहुत तेज़ दौड़ती
भागम भाग से हार कर ,
अजनबियत के सायों से परेशान हो कर ,
अकेलेपन को ओढे हुए
मैं . . .
जब भी कभी
किसी थकी-हारी शाम की
उदास दहलीज़ पर आ बैठता हूँ
तो
सामने रक्खे काग़ज़ के टुकडों पर
बिखरे पड़े
बेज़बान से कुछ लम्हे
मुझे निहारने लगते हैं...
मैं . .
उन्हें.. छू लेने की कोशिश में...
अपने होटों पर पसरी
बेजान खामोशी के रेशों को
बुन बुन कर
उन्हें इक लिबास देने लगता हूँ
और वो तमाम बिखरे लम्हे
लफ्ज़-लफ्ज़ बन
सिमटने लगते हैं....
और अचानक ही
इक दर्द-भरी , जानी-पहचानी सी आवाज़
मुझसे कह उठती है ....
मैं... कविता हूँ ...............!
तुम्हारी कविता .............!!
मुझसे बातें करोगे ......!?!
(Danish)
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