कई दिनों से दोनों तरफ से सिपाही अपने-अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस-बारह गोलियाँ चल जातीं, जिनकी आवाज़ के साथ कोई इन्सानी चीख बुलन्द नहीं होती थी। मौसम बहुत खुशनुमा था। हवा जंगली फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाडिय़ों की ऊँचाइयों और ढलानों पर लड़ाई से बेखबर कुदरत, अपने रोज के काम-काज में व्यस्त थी। चिडिय़ाँ उसी तरह चहचहाती थीं। फूल उसी तरह खिल रहे थे और धीमी गति से उडऩे वाली मधुमक्खियाँ, उसी पुराने ढंग से उन पर ऊँघ-ऊँघ कर रस चूसती थीं।
जब गोलियाँ चलने पर पहाडिय़ों में आवाज़ गूँजती और चहचहाती हुई चिडिय़ाँ चौंककर उडऩे लगतीं, मानो किसी का हाथ साज के गलत तार से जा टकराया हो और उनके कानों को ठेस पहुँची हो। सितम्बर का अन्त अक्तूबर की शुरूआत से बड़े गुलाबी ढंग से गले मिल रहा था। ऐसा लगता था कि जाड़े और गर्मी में सुलह-सफाई हो रही है। नीले-नीले आसमान पर धुनी हुई रुई जैसे पतले-पतले और हल्के-हल्के बादल यों तैरते थे, जैसे अपने सफेद बजरों में नदी की सैर कर रहे हैं।
पहाड़ी मोर्चों पर दोनों ओर से सिपाही कई दिनों से बड़ी ऊब महसूस कर रहे थे कि कोई निर्णयात्मक बात क्यों नहीं होती। ऊबकर उनका जी चाहता कि
मौका-बे-मौका एक-दूसरे को शेर सुनाएँ। कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें। वे पथरीली ज़मीन पर औंधे या सीधे लेटे रहते और जब हुक्म मिलता, एक-दो फायर कर देते।
मौका-बे-मौका एक-दूसरे को शेर सुनाएँ। कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें। वे पथरीली ज़मीन पर औंधे या सीधे लेटे रहते और जब हुक्म मिलता, एक-दो फायर कर देते।
दोनों मोर्चे बड़े सुरक्षित स्थान पर थे। गोलियाँ पूरे जोर से आतीं, और पत्थरों की ढाल से टकराकर, वहीं चित्त हो जातीं। दोनों पहाडिय़ों की ऊँचाई, जिन पर ये मोर्चे थे, लगभग एक ही जैसी थीं। बीच में छोटी-सी हरी-भरी घाटी थी, जिसके सीने पर एक नाला, मोटे साँप की तरह लोटता रहता था।
हवाई जहाजों का कोई खतरा नहीं था। तोपें न इनके पास थीं, न उनके पास, इसलिए दोनों तरफ बेखटके आग लगाई जाती थी। उससे धुएँ के बादल उठते और हवाओं में घुल-मिल जाते। रात को चूँकि बिलकुल खामोशी थी, इसलिए कभी-कभी दोनों मोर्चों के सिपाहियों को, किसी बात पर लगाए हुए, एक-दूसरे के ठहाके सुनाई दे जाते थे। कभी कोई लहर में आकर गाने लगता तो दूसरी आवाज़ गूँजती तो ऐसा लगता, मानो पहाडिय़ाँ सबक दोहरा रही हों।
चाय का दौर ख़त्म हो चुका था। पत्थरों के चूल्हे में चीड़ के हल्के-हल्के कोयले करीब-करीब ठंडे हो चुके थे। आसमान साफ था। मौसम में खुनकी थी। हवा में फूलों की महक नहीं थी, जैसे रात को उन्होंने अपने इत्रदान बन्द कर लिये थे। अलबत्ता, चीड़ के पसीने, यानी बिरोजे की बू थी। पर यह भी कुछ ऐसी नागवार नहीं थी। सब कम्बल ओढ़े सो रहे थे, पर कुछ इस तरह, कि हल्के-से इशारे पर उठकर लडऩे-मरने के लिए तैयार हो सकते थे। जमादार हरनाम सिंह खुद पहरे पर था। उसकी रासकोप घड़ी में दो बजे तो उसने गंडासिंह को जगाया और पहरे पर खड़ा कर दिया। उसका जी चाहता था कि सो जाये, पर जब लेटा तो आँखों से नींद को इतना दूर पाया जितने कि आसमान में सितारे थे। जमादार हरनाम सिंह चित लेटा उनकी तरफ देखता रहा…और फिर गुनगुनाने लगा।
कुर्ती लेनी आ सितारेयाँ वाली…
सितारेयाँ वाली…
वे हरनाम सिंहा, ओ यारा, भावें तेरी महीं बिक जाये
और हरनाम सिंह को आसमान पर हर तरफ सितारों वाले जूते बिखरे नज़र आये जो झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।
जुत्ती ले देआँ सितारेयाँ वाली…
सितारेयाँ वाली…
नी हरनाम कौर, ओ नारे, भावें मेरी महीं बिक जाये
यह गाकर यह मुस्कराया; फिर यह सोचकर नींद नहीं आएगी, उसने उठकर और सबको जगा दिया। नार के जिक्र ने उसके दिमाग में हलचल पैदा कर दी थी। वह चाहता था कि ऊटपटाँग बातें हों, जिससे इस गीत की हरनामकौरी कैफियत पैदा हो जाये। चुनाँचे बातें शुरू हुई, पर उखड़ी-उखड़ी रहीं। बन्तासिंह, जो उन सब में कम उम्र था और जिसकी आवाज़ सबसे अच्छी थी, एक तरफ हटकर बैठा गया। बाकी अपनी जाहिरा तौर पर मजेदार बातें करते और जम्हाइयाँ लेते रहे। थोड़ी देर के बाद बन्तासिंह ने एकदम सोज़भरी आवाज़ में ‘हीर’ गाना शुरू कर दिया…
हीर आख्या जोगिया झूठ बोले, कौन रूठड़े यार मनाउँदा ई
ऐसा कोई न मिलेया मैं ढूँढ़ थक्की जेहड़ा गयाँ नूँ मोड़ ल्याउँदा ई
इक बाज तों काँग ने कूँज खोही बेक्खाँ चुप है कि कुलाउँदा ई
दुक्खाँ वालेयाँ नूँ गल्लाँ सुख दियाँ नी किस्से जोड़ जहान सुनाउँदा ई
फिर कुछ रुक कर उसने हीर की इन बातों का जवाब, राँझे की ज़बान में गाया…
जेहड़े बाज तो काँग ने कूँज खोही सब्र शुक्र कर बाज फनाह होया
ऐवें हाल है एस फकीर दा नी, धन माल गया ते तबाह होया
करें सिदक ते कम मालूम होवे तेरा रब्ब रसूल गवाह होया
दुनिया छड्ड उदासियाँ पहन लइयाँ सैयद वारिसों हुन वारिस शाह होया
बन्तासिंह ने जिस तरह एकदम गाना शुरू किया था, उसी तरह वह एकदम खामोश हो गया।
ऐसा लगता था कि खाकी पहाडिय़ों ने भी उदासियाँ पहन ली हैं। जमादार हरनाम सिंह ने थोड़ी देर के बाद किसी अनदेखी चीज को मोटी-सी गाली दी और लेट गया। सहसा रात के आख़िरी पहर की उदास-उदास फिजा में एक कुत्ते के भौंकने की आवाज़ गूँजी। सब चौंक पड़े; आवाज़ करीब से आयी थी। सूबेदार हरनाम सिंह ने उठकर कहा, ‘‘यह कहाँ से आ गया, भौंकू?”
कुत्ता फिर भौंका। अब उसकी आवाज़ और भी नज़दीक से आयी थी। कुछ पलों के बाद, दूर झाडिय़ों में आहट हुई। बन्तासिंह उठा और उसकी तरफ बढ़ा। जब वापस आया तो उसके साथ एक आवारा-सा कुत्ता था, जिसकी दुम हिल रही थी। वह मुस्कराया, ‘‘जमादार साहब! मैं ‘हूकम्ज इधर’ बोला तो कहने लगा—मैं हूँ चपड़ झुनझुन।”
सब हँसने लगे। जमादार हरनाम सिंह ने कुत्ते को पुचकारा, ‘‘इधर आ चपड़ झुनझुन।”
कुत्ता दुम हिलाता, हरनाम सिंह के पास चला गया और यह समझकर कि शायद खाने की कोई चीज फेंकी गयी है, ज़मीन के पत्थर सूँघने लगा। जमादार हरनाम सिंह ने थैला खोलकर एक बिस्कुट निकाला और उसकी तरफ फेंका। कुत्ते ने उसे सूँघकर मुँह खोला, लेकिन हरनाम सिंह ने लपककर उसे उठा लिया, ‘‘ठहर कहीं पाकिस्तानी तो नहीं।” सब हँसने लगे। सरदार बन्तासिंह ने आगे बढक़र कुत्ते की पीठ पर हाथ फेरा और जमादार हरनाम सिंह से कहा, ‘‘नहीं जमादार साहब, चपड़ झुनझुन हिन्दुस्तानी है।”
जमादार हरनामसिंह हँसा और कुत्ते से मुखातिब हुआ, ‘‘निशानी दिखा ओये।”
कुत्ता दुम हिलाने लगा। हरनाम सिंह ज़रा खुलकर हँसा, ‘‘यह कोई निशानी नहीं। दुम तो सारे कुत्ते हिलाते हैं।”
बन्दा सिंह ने कुत्ते की काँपती दुम पकड़ ली, ‘‘शरणार्थी है बेचारा।”
जमादार हरनाम सिंह ने बिस्कुट फेंका, जो कुत्त ने झट दबोचा लिया। एक जवान ने अपने बूट की एड़ी से ज़मीन खोटते हुए कहा, ‘‘अब कुत्तों को भी या तो हिन्दुस्तानी होना पड़ेगा। या पाकिस्तानी।”
जमादार ने अपने थैले से एक और बिस्कुट निकाला और फेंका, ‘‘पाकिस्तानियों की तरह पाकिस्तानी कुत्ते भी गोली से उड़ा दिये जाएँगे।”
एक ने जोर से नारा लगाया—‘‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद।”
कुत्ता, जो बिस्कुट उठाने के लिए आगे बढ़ा था, डरकर पीछे हट गया। उसकी दुम टाँगों के अन्दर घुस गयी। जमादार हरनाम सिंह हँसा, ‘‘अपने नारे से क्यों डरता है। चपड़ झुनझुन…खा…ले, एक और ले।” उसने थैले से एक और बिस्कुट निकाल कर उसे दिया।
बातों-बातों में सुबह हो गयी। सूरज निकलने का इरादा ही कर रहा था कि चारों ओर उजाला हो गया। जिस तरह बटन दबाने से एकदम बिजली की रोशनी होती है, उसी तरह सूरज की किरणें देखते-ही-देखते, उस पहाड़ी इलाके में फैल गयीं, जिनका नाम टिटवाल था।
इस इलाके में काफी देर से लड़ाई चल रही थी। एक-एक पहाड़ी के लिए दर्जनों जवानों की जानें जाती थीं, फिर भी क़ब्जा गैर-यकीनी होता था। आज यह पहाड़ी उनके पास है, कल दुश्मन के पास, परसों फिर उनके क़ब्जे में इसके दूसरे दिन वह फिर दूसरों के पास चली जाती थी।
जमादार हरनाम सिंह ने दूरबीन लगाकर आसपास का जायजा लिया। सामने पहाड़ी में धुआँ उठ रहा था। इसका मतलब यह था कि चाय वगैरह तैयार हो रही है। इधर भी नाश्ते की फिक्र हो रही थी। आग सुलगायी जा रही थी। उधर वालों को भी निश्चय ही उधर से धुआँ उठता दिख रहा था।
नाश्ते पर सब जवानों ने थोड़ा-थोड़ा कुत्ते को दिया, जो उसने खूब पेट भरके खाया। सब उसमें दिलचस्पी ले रहे थे, जैसे वे उसको अपना दोस्त बनाना चाहते हों। पुचकार कर ‘चपड़ झुनझुन’ के नाम से पुकारता और उसे प्यार करता।
शाम के करीब, दूसरी तरफ, पाकिस्तानी मोर्चे में, सूबेदार हिम्मत खाँ अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों को, जिनके साथ बेशुमार कहानियाँ जुड़ी हुई थीं, मरोड़े दे-देकर, टिटवाल के नक्शे को बड़े ध्यान से देख रहा था। उसके साथ ही वायरलैस आपरेटर बैठा था और सूबेदार हिम्मत खाँ के लिए प्लाटून कमांडर के निर्देश प्राप्त कर रहा था। कुछ दूर, एक पत्थर से टेक लगाये और अपनी बन्दूक लिये, बशीर धीमे-धीमे गुनगुना रहा था…
‘‘चन्न कित्थे गवाई आयी रात वे…
चन्न कित्थे गवाई आयी…”
बशीर ने मजे में आकर आवाज़ ज़रा ऊँची की तो सूबेदार हिम्मत खाँ की कडक़दार आवाज़ बुलन्द हुई—‘‘ओये, कहाँ रहा है तू रात-भर?”
बशीर ने सवालिया नज़रों से हिम्मत खाँ को देखना शुरू किया, तो बशीर की बजाय किसी और से मुखातिब था, ‘‘बता ओये।”
बशीर ने देखा—कुछ फासले पर वह आवारा कुत्ता बैठा था, जो कुछ दिन हुए उनके मोर्चे में बिन बुलाये मेहमान की तरह आया था और वहीं टिक गया था। बशीर मुस्कराया और कुत्ते को सम्बोधित कर बोला—
‘‘चन्न कित्थे गँवाई आयी रात ये
चन्न कित्थे गँवाई आयी…”
कुत्ते ने जोर से दुम हिलाना शुरू किया, जिससे पथरीली ज़मीन पर झाड़ू-सी फिरने लगी।
सूबेदार हिम्मत खाँ ने एक कंकड़ उठाकर कुत्ते की तरफ फेंका, ‘‘साले को दुम हिलाने के सिवा और कुछ नहीं आता!”
बशीर ने एकदम कुत्ते की तरफ गौर से देखा, ‘‘इसकी गर्दन में क्या है?” यह कहकर वह उठा, पर इससे पहले एक और जवान के कुत्ते को पकडक़र, उसकी गर्दन में बँधी हुई रस्सी उतारी। उसमें गत्ते का एक टुकड़ा पिरोया हुआ था, जिस पर कुछ लिखा था। सूबेदार हिम्मत खाँ ने यह टुकड़ा लिया और अपने जवानों से कहा—‘‘……… हैं। जानता है तुममें से कोई पढऩा?”
बशीर ने आगे बढक़र गत्ते का टुकड़ा लिया, ‘‘हाँ…कुछ-कुछ पढ़ लेता हूँ।” और उसने बड़ी मुश्किल से अक्षर जोड़-जोडक़र यह पढ़ा—‘‘चप…चपड़ झुन…झुन…चपड़ झुनझुन…यह क्या हुआ?”
सूबेदार हिम्मत खाँ ने अपनी बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक मूँछों को ज़बरदस्त मरोड़ दिया, ‘‘कोडवर्ड होगा कोई।” फिर उसने बशीर से पूछा, ‘‘कुछ और लिखा है बशीरे?”
बशीर ने, जो अक्षर जोडऩे में लगा था, जवाब दिया, ‘‘जी हाँ…यह… यह…हिन…हिन्द…हिन्दुस्तानी…यह हिन्दुस्तानी कुत्ता है।”
सूबेदार हिम्मत खाँ ने सोचना शुरू किया, ‘‘मतलब क्या हुआ इसका? क्या पढ़ा था तुमने—चपड़…?”
बशीर ने जवाब दिया, ‘‘चपड़ झुनझुन।”
एक जवान ने बहुत बुद्धिमान बनते हुए कहा, ‘‘जो बात है, इसी में है।”
सूबेदार हिम्मत खाँ को यह बात माकूल लगी, ‘‘हाँ, कुछ ऐसा ही लगता है।”
बशीर ने गत्ते पर लिखी हुई पूरी इबारत पढ़ी—‘‘चपर झुनझुन…यह हिन्दुस्तानी कुत्ता है।”
सूबेदार हिम्मत खाँ ने वायरलैस सेट लिया और कानो पर हैडफोन लगाकर प्लाटून कमांडर से खुद उस कुत्ते के बारे में बातचीत की। वह कैसे आया था, किस तरह उनके पास कई दिन पड़ा रहा, फिर एकाएक गायब हो गया और रात-भर गायब रहा। अब आया है तो उसके गले में एक रस्सी नज़र आयी, जिसमें गत्ते पर एक टुकड़ा था। उस पर जो इबारत लिखी थी, वह उसने तीन-चार बार दोहराकर प्लाटून कमांडर को सुनायी, पर कोई नतीजा हासिल न हुआ।
बशीर अलग कुत्ते के पास बैठकर उसे कभी पुचकार कर, कभी डरा-धमकाकर पूछता रहा कि वह रात कहाँ गायब रहा था और उसके गले में वह रस्सी और गत्ते का टुकड़ा किसने बाँधा था, पर कोई मनचाहा जवाब न मिला। वह जो सवाल न करता, उसके जवाब में कुत्ता अपनी दुम हिला देता। आखिर गुस्से में आकर बशीर ने उसे पकड़ लिया और जोर का झटका दिया। कुत्ता तकलीफ़ के कारण ‘चाऊँ-चाऊँ’ करने लगा।
वायरलैस से निपटकर सूबेदार हिम्मत खाँ ने कुछ देर नक्शे को गौर से देखा और फिर निर्णयात्मक भाव से उठा और सिगरेट की डिबिया का ढकना खोलकर बशीर को दिया, ‘‘बशीरे, लिख इस पर गुरमुखी में…उन कीड़े-ककोड़ों में…”
बशीर ने सिगरेट की डिबिया का गत्ता लिया और पूछा—‘‘क्या लिखूँ सूबेदार साहब?”
सूबेदार हिम्मत खाँ ने मूँछों को मरोड़े देकर सोचना शुरू किया, ‘‘लिख दे…बस, लिख दे।” यह कहकर उसने जेब से पेंसिल निकालकर बशीर को दी, ‘‘क्या लिखना चाहिए?” उसने जैसे खुद से पूछा।
बशीर पेंसिल की नोक को होंठ से लगाकर सोचने लगा, फिर एकदम सवालिया अन्दाज में बोला—‘‘सपड़ सुनसुन…?” लेकिन फौरन ही सन्तुष्ट होकर उसने निर्णय-भरे लहजे में कहा—‘‘चपड़ झुनझुन का जवाब सपड़ सुनसुन ही हो सकता है…क्या याद करेंगे अपनी माँ के सिखड़े।”
बशीर ने पेंसिल सिगरेट की डिबिया पर जमायी, ‘‘सपड़ सुनसुन!”
‘‘सोला आने! लिख…सप…सपड़…सुनसुन।” यह कहकर सूबेदार हिम्मत खाँ ने जोर का ठहाका लगाया,” और आगे लिखा, ‘‘यह…पाकिस्तानी कुत्ता है।”
सूबेदार हिम्मत खाँ ने गत्ता बशीर के हाथ से ले लिया। पेंसिल से उसमें एक छेद किया और रस्सी में पिरोकर कुत्ते की तरफ बढ़ा, ले जा यह अपनी औलाद के पास।”
यह सुनकर सब जवान खूब हँसे। सूबेदार हिम्मत खाँ ने कुत्ते के गले में रस्सी बाँध दी। वह इस बीच अपनी दुम हिलाता रहा। इसके बाद सूबेदार ने उसे कुछ खाने को दिया और नसीहत करने के अन्दाज़ में कहा—‘‘देखो दोस्त, गद्दारी मत करना…याद रखो, गद्दारी की सजा मौत होती है।”
कुत्ता दुम हिलाता रहा। जब वह अच्छी तरह खा चुका तो सूबेदार हिम्मत खाँ ने रस्सी से पकडक़र उसका रुख पहाड़ी की इकलौती पगडंडी की तरफ फेरा और कहा, ‘‘जाओ, हमारा खत दुश्मनों तक पहुँचा दो…मगर देखो, वापस आ जाना…यह तुम्हारे अफसर का हुक्म है, समझे?”
कुत्ते ने अपनी दुम हिलायी और आहिस्ता-आहिस्ता पगडण्डी पर, जो बल खाती हुई, नीचे पहाड़ी के दामन में जाती थी, चलने लगा। सूबेदार हिम्मत खाँ ने अपनी बन्दूक उठायी और हवा में फायर किया।
फायर और उसकी गूँज दूसरी तरफ हिन्दुस्तानियों के मोर्चे में सुनी गयी। इसका मतलब उनकी समझ में न आया। जमादार हरनाम सिंहा पता नहीं किस बात पर चिड़चिड़ा हो रहा था, यह आवाज़ सुनकर और भी चिड़चिड़ा हो गया। उसने फायर का हुक्म दे दिया। आधा घंटे तक दोनों मोर्चों से गोलियों के बेकार बारिश होती रही। जब इस शगल से उकता गया तो जमादार हरनाम सिंह ने फायर बन्द करा दिया और दाढ़ी में कंघी करनी शुरू कर दी। इससे छुट्टी पाकर उसने जाली के अन्दर सारे बाल बड़े सलीके से जमाये और बन्ता सिंह से पूछा, ‘‘ओय बन्ता सिंहा! चपड़ झुनझुन कहाँ गया?”
बन्ता सिंह ने चीड़ की भूखी लकड़ी से बिरोजे को अपने नाखूनों से अलग करते हुए कहा, ‘‘पता नहीं।”
जमादार हरनाम सिंह ने कहा, ‘‘कुत्ते को घी हजम नहीं हुआ?”
बन्ता सिंह इस मुहावरे का मतलब नहीं समझा, ‘‘हमने तो उसे घी की कोई चीज नहीं खिलायी थी।”
यह सुनकर जमादार हरनाम सिंह बड़े जोर से हँसा, ‘‘ओये अनपढ़! तेरे साथ तो बात करना, पंचानबे का घाटा है।”
तभी वह सिपाही, जो पहरे पर था और दूरबीन लगाए, इधर-उधर देख रहा था, एकदम चिल्लाया, ‘‘वह…वह आ रहा है।”
सब चौंक पड़े। जमादार हरनाम सिंह ने पूछा, ‘‘कौन?”
पहरे के सिपाही ने कहा, ‘‘क्या नाम था उसका—चपड़ झुनझुन!”
‘‘चपड़ झुनझुन?” यह कह कर जमादार हरनाम सिंह उठा, ‘‘क्या कर रहा है वो?”
पहरे के सिपाही ने जवाब दिया, ‘‘आ रहा है।”
जमादार हरनाम सिंह ने दूरबीन उसके हाथ से ली और देखना शुरू किया, इधर ही आ रहा है।…रस्सी बँधी हुई है गले में…लेकिन यह तो उधर से आ रहा है, दुश्मन के मोर्चे से।” कह कर उसने कुत्ते की माँ को बहुत बड़ी गाली दी। इसके बाद उसने बन्दूक उठायी और निशाना बाँधकर फायर किया। निशाना चूक गया। गोली कुत्ते के कुछ फासले पर पत्थरों की किरचें उड़ाती, ज़मीन में दफन हो गयी। कुत्ता सहम कर रुक गया।
दूसरे मोर्चे में सूबेदार हिम्मत खाँ ने दूरबीन में से देखा कि कुत्ता पगडंडी पर खड़ा है। एक और फायर हुआ तो वह दुम दबाकर उल्टी तरफ भागा—सूबेदार हिम्मत खाँ के मोर्चे की तरफ। सूबेदार ने जोर से पुकारा, ‘‘बहादुर, डरा नहीं करते…चल वापस।” और उसने डराने के लिए एक फायर किया। कुत्ता रुक गया। उधर से जमादार हरनाम सिंह ने बन्दूक चलाई। गोली कुत्ते के कान के पास से सनसनाती हुई गुजर गयी। उसने उछलकर ज़ोर-ज़ोर से दोनों कान फटफटाने शुरू किये। उधर से सूबेदार हिम्मत खाँ ने दूसरा फायर किया। गोली उसके अगले पंजों के पास पत्थरों में धँस गयी। बौखलाकर कभी वह इधर दौड़ा, कभी उधर। उसकी इस बौखलाहट से हिम्मत खाँ और हरनाम सिंह, दोनों बहुत खुश हुए और खूब ठहाके लगाते रहे। कुत्ते ने जमादार हरनाम सिंह के मोर्चे की तरफ भागना शुरू किया। उसने यह देखा तो बड़े ताव में आकर मोटी-सी गाली दी और अच्छी तरह निशान बाँधकर फायर किया। गोली कुत्ते की टाँग में लगी। आसमान को चीरती हुई एक चीख बुलन्द हुई। कुत्ते ने अपना रुख बदला। लँगड़ा-लँगड़ाकर सूबेदार हिम्मत खाँ के मोर्चे कि तरफ दौडऩे लगा तो उधर से भी फायर हुआ, पर वह सिर्फ डराने के लिए किया गया था। हिम्मत ख़ाँ फायर करते ही चिल्लाया, ‘‘बहादुर…बहादुर परवाह नहीं किया करते ज़ख्मों की। खेल जाओ अपनी जान पर…जाओ…जाओ।”
कुत्ता फायर से घबराकर मुड़ा। उसकी एक टाँग बिल्कुल बेकार हो गयी थी। बाकी तीन टाँगों की मदद से उसने खुद को चन्द कदम दूसरी ओर घसीटा था कि जमादार हरनाम सिंह ने निशाना ताककर गोली चलाई, जिसने उसे वहीं ढेर कर दिया।
सूबेदार हिम्मत खाँ ने अफसोस के साथ कहा—‘‘च…च…च…! शहीद हो गया बेचारा।’
जमादार हरनाम सिंह ने बन्दूक की गर्म-गर्म नाली अपने हाथ में ली और कहा, ‘वही मौत मरा, जो कुत्ते की होती है।”
(सआदत हसन मंटो )
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