Sunday, October 12, 2025

कितना होना है.... कितना नहीं


कई लोग... कितना होना है.... कितना नहीं.... के बीच फंसे हैं


धर्म कितना हो... कितना नहीं..... इतना कि वोट मिल जाएं... लोक-परलोक सध जाए

इतना नहीं कि..... बहुर्राष्‍ट्रीय होने में आड़े आए

वाम कितना हो.... कितना नहीं.....

इतना कि... बौद्धिक मान्‍यता और सहानुभूति मिल जाए

इतना नहीं कि.... बाज़ार जाएँ  और जेब ख़ाली रह जाए....

प्रतिरोध कितना हो ....कितना ...नहीं

इतना कि.... मोमबत्तियां ले देर शाम इंडिया गेट घूम आयें 

इतना नहीं कि ....दफ़्तर से छुट्टी लेनी पड़ जाए

जाति कितनी हो... कितनी नहीं

इतनी कि.... आरक्षण पर अपना प्रिय विमर्श सम्‍भव कर पाएँ 

इतनी नहीं कि ....कोई अधीनस्‍थ पदोन्‍नति पा.... सर चढ़ जाए

नारी मुक्ति... कितनी हो... कितनी नहीं

इतनी कि... पत्‍नी नौकरी पर जाए चार पैसे कमाए

इतनी नहीं कि.... लौटकर थकान के मारे खाना तक...... न  पकाए

कितना हो.... कितना नहीं

संतुलन बताया जाने वाला अज़ाब है

समकालीन समाज में

लोग तय ही नहीं कर पा रहे

कल में रहें ....कि...... आज में ....



शिरीष कुमार मौर्य

यह कविता दिखाती है कि आज का व्यक्ति हर विचार और पहचान को एक उपयोगितावादी (utilitarian) नज़रिए से देखता है। वह किसी भी चीज़ को उसकी आदर्शवादी पराकाष्ठा तक नहीं ले जाना चाहता, बल्कि केवल लाभदायक सीमा तक ही सीमित रखता है:

  • धर्म: इतना कि वोट और लोक-परलोक दोनों सध जाएँ, लेकिन इतना नहीं कि वैश्विक करियर या बहुराष्ट्रीय पहचान में बाधा आए। यह दिखाता है कि धर्म अब व्यक्तिगत आस्था से अधिक सामाजिक-राजनीतिक औज़ार बन गया है।

  • वाम (Leftism): इतना कि बौद्धिक गलियारों में सम्मान और सहानुभूति मिल जाए, लेकिन इतना नहीं कि बाज़ारवाद और व्यक्तिगत आर्थिक लाभ को त्यागना पड़े। यह सिद्धांतों और व्यावहारिकता के बीच की खाई को उजागर करता है।

  • प्रतिरोध (Protest): इतना कि सामाजिक सक्रियता का प्रमाण दिया जा सके (जैसे मोमबत्तियां लेकर घूमना), लेकिन इतना नहीं कि व्यक्तिगत जीवनशैली और व्यावसायिक ज़िम्मेदारियों (दफ़्तर से छुट्टी) पर आंच आए। यह सेल्फ़ी-एक्टिविज़्म और खोखले विरोध पर एक करारा व्यंग्य है।

  • जाति: इतनी कि आरक्षण पर बहस करने का विशेषाधिकार बना रहे, लेकिन इतनी नहीं कि सामाजिक पदानुक्रम में कोई बदलाव आए और कोई अधीनस्थ पदोन्नति पाकर बराबरी पर आ जाए। यह रूढ़िवाद और सुविधाजनक जातिवाद को दिखाता है।

  • नारी मुक्ति (Feminism): इतनी कि आर्थिक लाभ हो और पत्नी नौकरी कर चार पैसे कमाए, लेकिन इतनी नहीं कि पारंपरिक भूमिकाएँ (जैसे खाना पकाना) बदल जाएँ और पति को असुविधा हो। यह पितृसत्तात्मक सोच के "मॉडर्न" रूप को बेनकाब करता है।

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