Thursday, February 09, 2012

इतिहास की परीक्षा .........


इतिहास की परीक्षा थी  उस दिन , चिंता से ह्रदय  धडकता था 
थे  बुरे  शकुन  घर  से  चलते  ही, बायाँ  हाथ  फड़कता  था 


मैंने  सवाल  जो  याद  किये, वे  केवल  आधे  याद  हुए 

उनमें से भी  कुछ  स्कूल  तलक,आते  आते  बर्बाद हुए 


तुम  बीस मिनट  लेट , द्वार  पर चपरासी  नें  बतलाया 

मैं  मेल  ट्रेन  की  तरह  दौड़ता, कमरे  के  भीतर  आया 


परचा  हाथों  में  पकड़  लिया , आखें  मूंदी  तब   झूम  गया 

पढ़ते  ही  छाया  अन्धकार, चक्कर  आया सर घूम गया 


यह  सौ  नंबर  का परचा है , मुझको  दो  की  भी  आस  नहीं 

चाहे  सारी दुनिया  पलटे ,पर  मैं  हो  सकता  पास  नहीं 


ओ  प्रश्न  लिखने  वाले, क्या  मुह  लेकर  उत्तर दें  हम 

तू लिख  दे  तेरी  जो  मर्ज़ी , ये  परचा  है या Atom Bomb


तूने पूछे  वही  सवाल , जो  जो  मैंने  थे  रटे नहीं 

जिन  हाथों नें ये  प्रश्न लिखे, वे  हाथ तुम्हारे कटे नहीं 


फिर  आँख  मूंदकर  बैठ  गया , बोला  भगवान्  दया  कर  दे 

मेरे  दिमाग  में  इन प्रश्नों  के  उत्तर  ठूस  ठूस  भर दे 


मेरा  भविष्य  है खतरे  में , मैं  झूल  रहा  हूँ  आयें  बायें  

तुम  करते  हो  भगवान्  सदा , संकट  में  भक्तों  की सहाय 


जब  ग्राह  ने  गज  को  पकड़  लिया  तुमने  ही  उसे  बचाया  था 

जब  दुपद -सुता  की लाज  लुटी , तुमने  ही  चीर  बढ़ाया  था 


द्रौपदी  समझ  करके  मुझको , मेरा  भी  चीर  बढ़ाओ  तुम 

मैं  विष  खाकर  मर  जाऊँगा  , वर्ना  जल्दी  आ  जाओ  तुम 


आकाश  चीर  कर  अम्बर  से , आई  गहरी  आवाज़  एक 

रे  मुरख  ! व्यर्थ  क्यूँ  रोता  है , तू  आँख  खोलकर  इधर  देख 


गीता कहती  है  करम  करो , फल  की चिंता  मत  किया  करो 

मन में  आये  जो  बात  उसी  को , पर्चे  में  लिख  दिया  करो 


मेरे  अंतर  के  पात  खुले , पर्चे  पर  कलम  चली  चंचल 

ज्यों  किसी खेत  की छाती पर  , चलता  हो  हलवाहे  का  हल 


मैंने  लिखा  पानीपत  का  दूसरा  युद्ध,  हुआ  सावन के मौसम  में 

Japan Germani  बीच  हुआ , अठारह  सौ  सत्तावन  में 


लिख  दिया  महात्मा  बुध , महात्मा  गाँधी  के  चेले  थे 

गाँधी  जी  के  संग  बचपन  में  वो  आँख  मिचौली खेले  थे 


राणा  प्रताप  नें  गौरी  को , केवल  दस  बार हराया  था 

अकबर  नें  हिंद महा  सागर , अमरीका  से मंगवाया  था 


महमूद गजनबी  उठते  ही , दो  घंटे  रोज़ नाचता  था 

औरंगजेब रंग में आकर , औरों  की  जेब काटता  था 


इस  तरह  अनेकों  भावों से , फूटे  भीतर  के  फव्व्वारे 

जो  जो  सवाल  थे  याद  नहीं , वे  ही  पर्चे  पर  लिख  मारे 


हो  गया  परीक्षक  पागल सा ,  मेरी  copy को  देख देख 

बोला  इन  सब  छात्रों  में , बस  होनहार  है  यही  एक 


औरों  के  पर्चे  फेंक दिए , मेरे  सब  उत्तर  छांट  लिए 

Zero नंबर  देकर  बाकी  के  सारे  नंबर  काट  लिए ....


(ॐ प्रसाद आदित्य )







केंद्र....ek Kavita





























Main aur Tum

vritt ki paridhi ke
alag alag konoN mein
baithe do bindoo hain
maine to apne hisse ka ardh-vyaas
poora kar liyaa
kya tum kendra per
mujhse milne aaoge........?

मैं और तुम
वृत्त की परिधि  के
अलग अलग कोनों में
बैठे दो बिंदू हैं ...
मैंने तो अपने हिस्से का अर्ध-व्यास
पूरा कर लिया
क्या तुम केंद्र पर
मुझसे मिलने आओगे  ?

वृत्त  = Circle
परिधि =circumfrence
अर्ध-व्यास =Radius
केंद्र =Centre point

Unknown 



Gulzar - Mujhko bhi tarkeeb sikha




(This video is posted by channel – REKHTA  on YouTube, and Raree India has no direct claims to this video. This video is added to this post for knowledge purposes only.)

ALAAV...........................अलाव





























Raat bhar sard hawa chalti rahi
रात भर सर्द हवा चलती रही
 
Raat bhar hamne alaav taapa
रात भर हमने अलाव तपा 

Maine maazi se kai khushk see shaakhien kaati
मैंने माज़ी से कई खुश्क़ सी शाखें काटी 

Tumne bhi gujre hue lamhon ke patte tode
तुमने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े
 
Maine jebon se nikali sabhi sukhi nazmein
मैंने जेबों से निकाली सभी सूखी नज्में
 
Tumne bhi haathon se murjhaaye hue khat khole
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले 

Apnee in aankhon se maine kai maanzer tode
अपनी ही आँखों से मैंने कई मंज़र तोड़े 

Aur haathon se kai baasi lakeeren phenki
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी 

Tumne palkon pe nami sookh gayee thee, so gira di
तुमने पलकों पे नमी सूख गयी थी , सो गिरा दी 

Raat bhar jo bhi mila ugte badan par humko
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर  हमको 

Kaat ke daal diya jalte alaawon mein usey
काट के डाल  दिया जलते अलावों में उसे 

Raat bhar phoonkon se har lau ko jagaye rakha
रात भर फूंको से हर लौ को जगाये रखा 

Aur do zismon ke indhan ko jalaye rakha
और दो जिस्मों के इंधन को जलाये रखा 

Raat bhar bujhte hue rishte ko taapa humne...
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तपा हमने .........

(Gulzar)
Photo credit: indrihapsariw.com


.com

Friday, January 20, 2012

यूँ पलट जाए ज़िन्दगी ....

किसी की लिखी इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया मुझे -

किताबों के पन्नों को पलटकर सोचता हूँ 
यूँ पलट जाए ज़िन्दगी तो क्या बात है ...


कितने साधारण शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी गयी , काश ऐसा मुमकिन होता , ज़िन्दगी इतनी आसानी से पलटी जा सकती , उसमें हुए हादसों , तकलीफों को एक पल में भुलाया जा सकता  और नए सिरे से जिया जा सकता.................

Monday, January 09, 2012

ऊँचाई ..a poem by Atal Bihari Vajpayi

कितने सुन्दर भाव है इस कविता में ............... (a Poem by Atal Bihari Vajpayi)

ऊँचे पहाड़ पर
पेड़ नहीं लगते
पौधे नहीं उगते
न घास ही जमती है

जमती है सिर्फ बर्फ
जो कफ़न की तरह सफ़ेद और
मौत की तरह ठंडी होती है
खेलती , खिलखिलाती नदी
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है

ऐसी ऊँचाई
जिसका परस (स्पर्श)
पानी को पत्थर कर दे

ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
अभिनन्दन की अधिकारी है
आरोहियों के लिए आमंत्रण है
उस पर  झंडे गाड़े जा सकते हैं

किन्तु गौरैया
वहां नीड़ नहीं बना सकती
न को थका-मांदा बटोही
उसकी छाँव में पल भाल पलक ही झपका सकता है

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती
सबसे अलग-थलग
परिवेश से पृथक
अपनों से कटा बंटा
शून्य में अकेला खड़ा  होना

पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है

जो जितना ऊँचा
उतना एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ढोता है 
चेहरे पर मुस्कान चिपका
मन ही मन रोता है 

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो
जिससे मनुष्य
ठूंठ सा खड़ा न रहे
औरों से घुले-मिले
किसी को साथ ले
किसी के संग चले ,

भीड़ में खो जाना
यादों में डूब जाना
स्वयं को भूल जाना
अस्तित्व को अर्थ
जीवन को सुगंध देता है

 धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की ज़रुरत है
इतने ऊँचे के आसमान छू लें
नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे
कोई काँटा न चुभे
कोई कली  न खिले

न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा

मेरे प्रभु
इतनी ऊँचाई कभी मत देना
के गैरों के गले न लग सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।

कविता का मुख्य विषय यह है कि महानता केवल ऊँचाई या पद (Position) प्राप्त करने में नहीं है, बल्कि उस ऊँचाई को दूसरों के लिए उपयोगी (Useful) और सुलभ (Accessible) बनाने में है, जिसमें 'विस्तार' और 'जुड़ाव' हो।

कविता का विस्तृत विश्लेषण (Detailed Analysis)

1. ऊँचे पहाड़ का प्रतीक: 'एकाकी' सफलता (The Lonely Success)

कवि ऊँचे पहाड़ को उस सफलता या पदवी का प्रतीक मानते हैं जो दूसरों से कटा हुआ है:

  • "पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते... जमती है सिर्फ बर्फ": यह बताता है कि केवल ऊँचाई पर भौतिक रूप से कोई उत्पादकता (Productivity) या जीवन (Life) नहीं है। ऐसी सफलता बंजर और ठंडी होती है।

  • "खेलती, खिलखिलाती नदी... अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है": जीवनदायिनी नदी (जो खुशी और प्रवाह का प्रतीक है) भी पहाड़ की उस 'मृत' ऊँचाई को छूकर पत्थर बन जाती है या ठंड से जम जाती है। यह दिखाता है कि अत्यधिक और कठोर ऊँचाई किसी भी प्राकृतिक भावना को नष्ट कर देती है।

  • "ऐसी ऊँचाई जिसका परस पानी को पत्थर कर दे": ऐसी ऊँचाई जो हर चीज़ को कठोर, स्थिर और निर्जीव बना दे।

  • "गौरैया वहां नीड़ नहीं बना सकती... थका-मांदा बटोही उसकी छाँव में पल भर पलक ही न झपका सकता है": यह सबसे महत्वपूर्ण पंक्ति है। यह दिखाती है कि ऐसी ऊँचाई सामान्य जीवन के लिए बेकार है। वह किसी गरीब या थके हुए व्यक्ति को आश्रय (Shelter) या आराम नहीं दे सकती।

2. महानता बनाम मजबूरी (Greatness vs. Compulsion)

कवि स्पष्ट करते हैं कि अकेलेपन में खड़ा होना महानता नहीं है:

  • "पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है": पहाड़ अकेले खड़े होते हैं क्योंकि वे अपनी प्रकृति से मजबूर हैं। उसी तरह, जो व्यक्ति केवल ऊँचाई पर पहुँचने के लिए सबसे अलग-थलग हो जाता है, वह महान नहीं बल्कि मजबूर है।

  • "जो जितना ऊँचा, उतना एकाकी होता है": यह एक गहरी मानवीय सच्चाई है। बड़े पदों या अत्यधिक सफलता पर पहुँचने वाले लोग अक्सर अकेले हो जाते हैं, उन्हें अपना दुख (भार) स्वयं ढोना पड़ता है और उन्हें अक्सर "चेहरे पर मुस्कान चिपका, मन ही मन रोना" पड़ता है।

3. 'विस्तार' की ज़रूरत (The Need for 'Expansion')

कवि बताते हैं कि सच्ची महानता के लिए ऊँचाई के साथ क्या आवश्यक है:

  • "ज़रूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो": यहाँ 'विस्तार' का अर्थ है जुड़ाव, पहुँच, और सामाजिक प्रासंगिकता (Social Relevance)। सफलता ऐसी हो जो सबके लिए खुली हो।

  • "औरों से घुले-मिले... किसी को साथ ले, किसी के संग चले": जीवन का असली अर्थ साझा करने, जुड़ने और सामूहिक विकास में है।

  • "भीड़ में खो जाना... स्वयं को भूल जाना... अस्तित्व को अर्थ, जीवन को सुगंध देता है": व्यक्तिगत अहंकार (Ego) को छोड़कर, दूसरों के साथ घुलना-मिलना ही जीवन को वास्तविक अर्थ (Meaning) और सुगंध (Fragrance) प्रदान करता है।

4. अंतिम प्रार्थना (The Final Prayer)

कविता का अंत एक विनम्र और मार्मिक प्रार्थना से होता है:

  • कवि ऊँचे कद के इंसानों की ज़रूरत को स्वीकार करते हैं जो 'आसमान छू लें' और 'नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें'। यानी, बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करें

  • किन्तु चेतावनी: "इतने ऊँचे भी नहीं कि पाँव तले दूब ही न जमे..." अर्थात्, वे इतने अलग न हो जाएँ कि वे ज़मीन से और साधारण जीवन की खुशियों से पूरी तरह कट जाएँ।

  • "मेरे प्रभु, इतनी ऊँचाई कभी मत देना, के गैरों के गले न लग सकूं। इतनी रुखाई (कठोरता) कभी मत देना।": यह कविता का सार है। कवि ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें ऐसी सफलता या ऊँचाई न मिले जो उन्हें मानवीय संवेदना (Human Emotion) से दूर कर दे, जिससे वे दूसरों के दुःख-दर्द में उनका साथ न दे सकें या उनसे प्यार और स्नेह से न मिल सकें।

कविता का सार (The Essence of the Poem)

यह कविता हमें सिखाती है कि सच्ची सफलता (True Success) वह नहीं है जो व्यक्ति को 'अकेला शिखर' बना दे, बल्कि वह है जो उस शिखर को जीवन, प्रेम और मानवता के 'विस्तार' से जोड़ती है। जहाँ केवल ध्वज गाड़े जाते हैं, वहाँ महानता नहीं, बल्कि जहाँ 'नीड़' (घोंसला) बनता है, वहाँ जीवन का सार है।

वो फिर हार गए ..........

प्रशांत वस्ल जी नें अपनी इस कविता में उस व्यक्ति की मनोस्थिती का वर्णन किया है जो दंगों के दौरान दंगाईयों के झुण्ड की चपेट में आ जाता है , आईये जानें क्या होता है उसके बाद ......


उनका एक जत्था था और मैं अकेला और निहत्था
उनका लक्ष्य था मुझे मिटाना , और मैं चाहता था
उनके आक्रमण से स्वयं को बचाना
इस प्रयास में मैं भागता
तो वो गोलबंद होकर मुझे नोच खाते
इसलिए मैं भागना स्तगित करके
उनका सामना करने की नीयत से अपनी समस्त इन्द्रियों को एकाग्र कर खड़ा रहा
उन्हें मेरा ये व्यवहार बड़ा अटपटा लगा...
वो मेरे चेहरे पर बेचारगी देखना चाहते थे...जो नहीं थी
वो मुझसे आशा कर रहे थे की मैं दया की याचना करूंगा .....जो मैंने नहीं की
क्योंकि मैं मरने से पहले, मरने को तैयार नहीं था ....
धीरे धीरे वो अनिर्णय की स्थिति में एक दूसरे को देखने लगे
किसी निर्णय के इंतज़ार में
जो कोई स्वयं नहीं लेना चाहता था
क्योंकि निर्णय के सही न होने का दोष हर कोई किसी और को देना चाहता था
धीरे धीरे उनके चेहरे उतर गए
और थोड़ी सी देर में वो मुझसे आँखें चुराते
बरसात के झूठे बादलों की तरह बिखर गए
मेरा अकेलापन फिर उनकी तथागथित एकजुटता से जीत गया था
मगर क्या मैं सच मुच अकेला हूँ
नहीं ....
मेरी सोच पर जो मेरा विश्वास है,  वो मेरे साथ है .... और रहेगा
मेरी ताक़त ...मेरा साथी बनकर सदा



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