Monday, October 08, 2012

टिटवाल का कुत्ता ...ek kahaani

कई दिनों से दोनों तरफ से सिपाही अपने-अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस-बारह गोलियाँ चल जातीं, जिनकी आवाज़ के साथ कोई इन्सानी चीख बुलन्द नहीं होती थी। मौसम बहुत खुशनुमा था। हवा जंगली फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाडिय़ों की ऊँचाइयों और ढलानों पर लड़ाई से बेखबर कुदरत, अपने रोज के काम-काज में व्यस्त थी। चिडिय़ाँ उसी तरह चहचहाती थीं। फूल उसी तरह खिल रहे थे और धीमी गति से उडऩे वाली मधुमक्खियाँ, उसी पुराने ढंग से उन पर ऊँघ-ऊँघ कर रस चूसती थीं।
जब गोलियाँ चलने पर पहाडिय़ों में आवाज़ गूँजती और चहचहाती हुई चिडिय़ाँ चौंककर उडऩे लगतीं, मानो किसी का हाथ साज के गलत तार से जा टकराया हो और उनके कानों को ठेस पहुँची हो। सितम्बर का अन्त अक्तूबर की शुरूआत से बड़े गुलाबी ढंग से गले मिल रहा था। ऐसा लगता था कि जाड़े और गर्मी में सुलह-सफाई हो रही है। नीले-नीले आसमान पर धुनी हुई रुई जैसे पतले-पतले और हल्के-हल्के बादल यों तैरते थे, जैसे अपने सफेद बजरों में नदी की सैर कर रहे हैं।

पहाड़ी मोर्चों पर दोनों ओर से सिपाही कई दिनों से बड़ी ऊब महसूस कर रहे थे कि कोई निर्णयात्मक बात क्यों नहीं होती। ऊबकर उनका जी चाहता कि

ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी...........सरदारजी


लोग समझते हैं सरदार जी मर गये। नहीं यह मेरी मौत थी। पुराने मैं की मौत। मेरे तअस्सुब (धर्मान्धता) की मौत। घृणा की मौत जो मेरे दिल में थी।

मेरी यह मौत कैसे हुई, यह बताने के लिए मुझे अपने पुराने मुर्दा मैं को जिन्दा करना पड़ेगा। मेरा नाम शेख बुराहानुद्दीन है। जब दिल्ली और नयी दिल्ली में साम्प्रदायिक हत्याओं और लूट-मार का बांजार गर्म था और मुसलमानों का खून सस्ता हो गया था, तो मैंने सोचा  …वाह री किस्मत! पड़ोसी भी मिला तो सिख।…जो पड़ोसी का फंर्ज निभाना या जान बचाना तो क्या, न जाने कब कृपाण झोंक दे!

बात यह है कि उस वक्त तक मैं सिखों पर हँसता भी था। उनसे डरता भी था और काफी नफरत भी करता था। आज से नहीं, बचपन से ही। मैं शायद छह साल का था, जब मैंने पहली बार किसी सिख को देखा था। जो धूप में बैठा अपने बालों को कंघी कर रहा था। मैं चिल्ला पड़ा, ‘अरे वह देखो, औरत के मुँह पर कितनी लम्बी दाढ़ी!’

जैसे-जैसे उम्र गुजरती गयी, मेरी यह हैरानी एक नस्ली नंफरत में बदलती गयी।

घर की बड़ी बूढ़ियाँ जब किसी बच्चे के बारे में अशुभ बात का जिक्र करतीं जैसे यह कि उसे निमोनिया हो गया था उसकी टाँग टूट गयी थी तो कहतीं,

Sunday, October 07, 2012

Khuda ki Kasam


उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैंपों के कैंप भरे पड़े थे जिनमें मिसाल के तौर पर तिल धरने के लिए वाकई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें लोग ठुसे जा रहे थे। गल्ला नाकाफी है, सेहत की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं, बीमारियाँ फैल रही हैं, इसका होश किसको था ! एक अफरा- तफरी का वातावरण था।

सन 48 का आरम्भ था। सम्भवतः मार्च का महीना था। इधर और उधर दोनों तरफ रजाकारों के जरिए से अपहृत औरतों और बच्चों की बरामदगी का प्रशंसनीय काम शुरू हो चुका था। सैकड़ों मर्द, औरतें, लडके और लड़कियाँ इस नेक काम में हिस्सा ले रहे थे। मैं जब उनको काम में लगे देखता तो मुझे बड़ी आश्चर्यजनक खुशी हासिल होती। यानी खुद इंसान, इंसान की बुराइयों के आसार मिटाने की कोशिश में लगा हुआ था। जो अस्मतें लुट चुकी थीं, उनको और अधिक लूट- खसोट से बचाना चाहता था। किसलिए?

इसलिए उसका दामन और अधिक धब्बों और दागों से भरपूर न हो? इसलिए कि वह जल्दी- जल्दी अपनी खून से लिथड़ी उँगलियाँ चाट ले और अपने जैसे पुरुषों के साथ दस्तरखान पर बैठकर रोटी खाए? इसलिए कि वह इंसानियत का सुई- धागा लेकर, जब एक- दूसरे आंखें बंद किए हैं, अस्मतों के चाक रफू कर दे। कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन उन रज़ाकारों की जद्दोजहद फिर भी काबिले कद्र मालूम होती थी। उनको सैकड़ों मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। हजारों बखेड़े उन्हें उठाने पड़ते थे , क्योंकि जिन्होंने औरतें और लड़कियाँ उठाई थीं, अस्थिर थे। आज इधर कल उधर। अभी इस मोहल्ले में, कल उस मोहल्ले में। और फिर आसपास के आदमी उनकी मदद नहीं करते थे। अजीब अजीब दास्तानें सुनने में आती थीं।

एक संपर्क अधिकारी ने मुझे बताया कि सहारनपुर में दो लड़कियों ने पाकिस्तान में अपने माँ- बाप के पास जाने से इनकार कर दिया। दूसरे ने बताया कि जब जालंधर में जबर्दस्ती हमने एक लड़की को निकाला तो काबिज के सारे खानदान ने उसे यूँ अलविदा कही जैसे वह उनकी बहू है और किसी दूर- दराज सफर पर जा रही है। कई लड़कियों ने माँ- बाप के खौफ से रास्ते में आत्महत्या कर ली। कुछ सदमे से पागल हो चुकी थीं , कुछ ऐसी भी थी जिन्हें शराब की लत पड़ चुकी थी। उनको प्यास लगती तो पानी की बजाय शराब माँगती और नंगी- नंगी गालियाँ बकतीं। मैं उन बरामद की हुई लड़कियों और औरतों के बारे में सोचता तो मेरे मन में सिर्फ फूले हुए पेट उभरते। इन पेटों का क्या होगा? उनमें जो कुछ भरा है, उसका मालिक कौन बने, पाकिस्तान या हिंदुस्तान? और वह नौ महीने की बारवरदारी, उसकी उज्रत पाकिस्तान अदा करेगा या हिंदुस्तान? क्या यह सब जालिम फितरत या कुदरत के बहीखाते में दर्ज होगा? मगर क्या इसमें कोई पन्ना खाली रह गया है?
बरामद औरतें आ रही थीं , बरामद औरतें जा रही थीं। मैं सोचता था ये औरतें भगाई हुईं क्यों कहलाई जाती थीं? इन्हें अपहृत कब किया गया है? अपहरण तो बड़ा रोमैंटिक काम है जिसमें मर्द और औरतें दोनों शामिल होते हैं। वह एक ऐसी खाई है जिसको फाँदने से पहले दोनों रूहों के सारे तार झनझना उठते हैं। लेकिन यह अगवा कैसा है कि एक निहत्थी को पक़ड़ कर कोठरी में कैद कर लिया?

लेकिन वह जमाना ऐसा था कि तर्क- वितर्क और फलसफा बेकार चीजें थीं। उन दिनों जिस तरह लोग गर्मियों में भी दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर सोते थे , इसी तरह मैंने भी अपने दिल- दिमाग में सब खिड़कियाँ दरवाजे बंद कर लिये थे। हालाँकि उन्हें खुला रखने की ज्यादा जरूरत उस वक्त थी , लेकिन मैं क्या करता। मुझे कुछ सूझता नहीं था। बरामद औरतें आ रही थीं। बरामद औरतें जा रही थीं। यह आवागमन जारी था, तमाम तिजारती विशेषताओं के साथ। और पत्रकार, कहानीकार और शायर अपनी कलम उठाए शिकार में व्यस्त थे। लेकिन कहानियों और नजमों का एक बहाव था जो उमड़ा चला आ रहा था। कलमों के कदम उखड़- उखड़ जाते थे। इतने सैद थे कि सब बौखला गए थे। एक संपर्क अधिकारी मुझसे मिला। कहने लगा, तुम क्यों गुमसुम रहते हो? मैंने कोई जवाब न दिया। उसने मुझे एक दास्तान सुनाई।

अपहृत औरतों की तलाश में हम मारे- मारे फिरते हैं। एक शहर से दूसरे शहर, एक गाँव से दूसरे गाँव, फिर तीसरे गाँव फिर चौथे। गली- गली, मोहल्ले- मोहल्ले, कूचे- कूचे। बड़ी मुश्किलों से लक्ष्य मोती हाथ आता है।

मैंने दिल में कहा, मोती? …कैसे मोती? …नकली या असली ?

तुम्हें मालूम नहीं हमें कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, लेकिन मैं तुम्हें एक बात बताने वाला था। हम बॉर्डर के इस पार सैकड़ों फेरे कर चुके हैं। अजीब बात है कि मैंने हर फेरे में एक बुढ़िया को देखा। एक मुसलमान बुढ़िया को – अधेड़ उम्र की थी। पहली बार मैंने उसे जालंधर में देखा था – परेशान, खाली दिमाग, वीरान आँखें, गर्द व गुबार से अटे हुए बाल, फटे हुए कपड़े। उसे तन का होश था न मन का। लेकिन उसकी निगाहों से यह जाहिर था कि किसी को ढूँढ रही है। मुझे बहन ने बताया कि यह औरत सदमे के कारण पागल हो गई है। पटियाला की रहने वाली है। इसकी इकलौती लड़की थी जो इसे नहीं मिलती। हमने बहुत जतन किए हैं उसे ढूँढने के लिए मगर नाकाम रहे हैं। शायद दंगों में मारी गई है, मगर यह बुढ़िया नहीं मानती। दूसरी बार मैंने उस पगली को सहारनपुर के बस अड्डे पर देखा। उसकी हालत पहले से कहीं ज्यादा खराब और जर्जर थी। उसके होठों पर मोटी मोटी पपड़ियाँ जमी थीं। बाल साधुओं के से बने थे। मैंने उससे बातचीत की और चाहा कि वह अपनी व्यर्थ तलाश छोड़ दे। चुनाँचे मैंने इस मतलब से बहुत पत्थरदिल बनकर कहा, माई तेरी लड़की कत्ल कर दी गई थी।

पगली ने मेरी तरफ देखा, ‘कत्ल ?… नहीं।’ उसके लहजे में फौलादी यकीन पैदा हो गया।‘ उसे कोई कत्ल नहीं कर सकता। मेरी बेटी को कोई कत्ल नहीं कर सकता।’ और वह चली गई अपनी व्यर्थ तलाश में। मैंने सोचा, एक तलाश और फिर …। लेकिन पगली को इतना यकीन था कि उसकी बेटी पर कोई कृपाण नहीं उठ सकती। कोई तेजधार या कुंद छुरा उसकी गर्दन पर नहीं बढ़ सकता। क्या वह अमर थी? या क्या उसकी ममता अमर थी? ममता तो खैर अमर होती है। फिर क्या वह अपनी ममता ढूँढ रही थी। क्या इसने उसे कहीं खो दिया? तीसरे फेरे पर मैंने उसे फिर देखा। अब वह बिल्कुल चीथड़ों में थी। करीब – करीब नंगी। मैंने उसे कपड़े दिए मगर उसने कुबूल न किए। मैंने उससे कहा, माई मैं सच कहता हूँ, तेरी लड़की पटियाले में ही कत्ल कर दी गई थी।

उसने फिर फौलादी यकीन के साथ कहा, ‘तू झूठ कहता है।’

मैंने उससे अपनी बात मनवाने की खातिर कहा, ‘नहीं मैं सच कहता हूँ। काफी रो- पीट लिया है तुमने। चलो मेरे साथ मैं तुम्हें पाकिस्तान ले चलूँगा। ’उसने मेरी बात न सुनी और बड़बड़ाने लगी। बड़बड़ाते हुए वह एकदम चौंकी। अब उसके लहजे में यकीन फौलाद से भी ठोस था, ‘नहीं मेरी बेटी को कोई कत्ल नहीं कर सकता।’

मैंने पूछा, क्यों?

बुढ़िया ने हौले- हौले कहा, ‘वह खूबसूरत है। इतनी खूबसूरत कि कोई कत्ल नहीं कर सकता। उसे तमाचा तक नहीं मार सकता।’

मैं सोचने लगा, क्या वाकई वह इतनी खूबसूरत थी। हर माँ की आँखों में उसकी औलाद चाँद का टुकड़ा होती है। लेकिन हो सकता है वह लड़की वास्तव में खूबसूरत हो। मगर इस तूफान में कौन सी खूबसूरती है जो इंसान के खुरदरे हाथों से बची है। हो सकता है पगली इस थोथे ख्याल को धोखा दे रही हो। फरार के लाखों रास्ते हैं। दुख एक ऐसा चौक है जो अपने इर्दगिर्द लाखों बल्कि करोड़ों सड़कों का जाल बना देता है।

बॉर्डर के इस पार कई फेरे हुए। हर बार मैंने उस पगली को देखा। अब वह हड्डियों का ढाँचा रह गई थई। नजर कमजोर हो गई थीं। टटोल – टटोलकर चलती थी, लेकिन उसकी तलाश जारी थी। बड़ी तल्लीनता से। उसका यकीन उसी तरह स्थिर था कि उसकी बेटी जिंदा है। इसलिए कि उसे कोई मार नहीं सकता।
बहन ने मुझसे कहा, ‘इस औरत से मगजमारी फिजूल है। इसका दिमाग चल चुका है। बेहतर यही है कि तुम इसे पाकिस्तान ले जाओ और पागलखाने में दाखिल करा दो।’

मैंने उचित न समझा। उसकी यह भ्रामक तलाश तो उसकी जिंदगी का एकमात्र सहारा थी। जिसे मैं उससे छीनना नहीं चाहता था। मैं उसे एक लंबे- चौड़े पागलखाने से, जिससे वह मीलों की यात्रा तय करके अपने पाँवों के आंबलों की प्यार बुझा ही थी , उठाकर एक छोटी सी चारदीवारी में कैद करना नहीं चाहता था।

आखरी बार मैंने उसे अमृतसर में देखा। उसकी दयनीय स्थिति ऐसी थी कि मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने फैसला कर लिया कि उसे पाकिस्तान ले जाऊँगा और पागलखाने में दाखिल करा दूंगा। एक फरीद के चौक में खड़ी अपनी आधी अंधी आँखों से इधर- उधर देख रही थी। चौक में काफी चहलपहल थी। मैं बहन के साथ एक दुकान पर बैठा एक अपहृत ल़ड़की के बारे में बात कर रहा था, जिसके बारे में हमें यह सूचना मिली थी कि वह बाजार सबूनिया में एक हिंदू बनिये के घर मौजूद है। यह गुफ्तगू खत्म हुई कि मैं उठा कि उस पगली को झूठसच कहकर पाकिस्तान ले जाने के लिए तैयार करूँ। तभी एक जोड़ा उधर से गुजरा। औरत ने घूँघट निकाला हुआ था। छोटा सा घूँघट। उसके साथ एक सिख नौजवान था। बड़ा छैलछबीला , तंदुरुस्त। तीखे – तीखे नक्शों वाला। जब ये दोनों उस पगली के पास से गुजरे तो नौजवान एकदम ठिठक गया। उसने दो कदम पीछे हटकर औरत का हाथ पकड़ लिया। कुछ इस अचानक तौर पर कि लड़की ने अपने छोटा सा घूँघट उठाया। लट्ठे की धुली हुई सफेद चादर के चौखटे में मुझे एक ऐसा गुलाबी चेहरा नजर आया जिसका हुस्न बयान करने में मेरी जबान लाचार है। मैं उनके बिल्कुल पास था। सिख नौजवान ने सौंदर्य की देवी से उस पगली की तरफ इशारा करते हुए धीमे से कहा, तुम्हारी माँ।

लड़की ने एक पल के लिए पगली की तरफ देखा और घूँघट छोड़ दिया और सिख नौजवान का बाजू पकड़कर भींचे हुए लहजे में कहा, चलो।

और वे दोनों सड़क से जरा इधर हटकर तेजी से आगे निकल गए। पगली चिल्लाई, ‘भागभरी … भागभरी।’

वह सख्त परेशान थी। मैंने पास जाकर उससे पूछा, ‘क्या बात है माई?’

वह काँप रही थी, ‘मैंने उसको देखा है .. मैंने उसको देखा है।’

मैंने पूछा, ‘किसे?’

उसके माथे के नीचे दो गड्ढों में उसकी आँखों के बेनूर ढेले हरकत कर रहे थे, ‘अपनी बेटी को … भागभरी को।’

मैंने फिर उससे कहा, ‘वह मर- खप चुकी है माई।’

उसने चीखकर कहा, ‘तुम झूठ कहते हो।’

मैंने इस बार उसे पूरा यकीन दिलाने की खातिर कहा, ‘मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ, वह मर चुकी है।’

यह सुनते ही वह पगली चौक में ढेर हो गई।


(सआदत हसन मंटो )

Thursday, October 04, 2012

एक बौनी बूँद....... ek bauni boond


एक बौनी बूँद ने
ek bauni boond nein

मेहराब से लटक
mehraab se latak

अपना कद
apna kad

लंबा करना चाहा
lamba karna chaaha

बाकी बूँदें भी
baaqi boondein bhi

देखा देखी
dekha dekhi

लंबा होने की
lamba hone 

होड़ में
hod mein 

धक्का मुक्की
dhakka mukki

लगी जा  लटकीं
lagi ja latki

क्षण भर के लिए
kashan bhar ke liye

लंबी हुई
lambi huyi

फिर गिरीं
phir giriN

और आ मिलीं
aur aa miliiN

अन्य बूँदों में
anay boondon mein

पानी पानी होती हुई
paani paani hoti huyi

नादानी पर अपनी।
naadaani per apni.....



(Divya Mathur)

Wednesday, October 03, 2012

Amazing Watercolor Paintings by Girish Chaudhary


































Girish Chaudhary is an Indian artist best known for his atmospheric and expressive work, primarily in watercolor. He often focuses on capturing the local ambiance of historical and everyday scenes.

Key Aspects of Girish Chaudhary's Watercolor Art

  • Subject Matter: His work frequently features landscapes, old buildings, narrow roads, trees, and people working on the street, often drawing inspiration from historical cities like his birthplace, Pune.

  • Medium Focus (Watercolor): Chaudhary states he mostly paints in watercolor because the medium offers him the freedom to express himself quickly. Watercolor is a difficult, demanding medium that requires careful planning, which he embraces.

  • Artistic Philosophy: He emphasizes that the motivation for his painting is primarily for personal pleasure and to satisfy his creative urge. While technique is important, expression comes first in his work.

  • Style: His paintings generally capture a specific moment or mood, offering a window into the everyday life and architecture of Indian cities.

The essence of his work lies in his effort to translate fleeting moments and personal sensibilities onto paper, primarily utilizing the challenging and spontaneous nature of the watercolor medium.

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