Wednesday, October 10, 2012

सरल रास्ते

थक  चुका हूँ मैं
सीधे-सरल  रास्तों पर चलते-चलते.

शुक्रगुज़ार हूँ मैं उनका,
जिन्होंने क़दमों तले  फूल  बिछाए,
पर अब इन  फूलों से तलवे जलने लगे हैं,
पेड़ों की घनी छांव  में
अब दम  घुटता है,
सीधी सपाट सड़क
अब उबाऊ  लगती है।























क्या फ़ायदा  इस  तरह चलने का
कि पसीना भी न  निकले,
इतनी भी थकान  न  हो कि
सुस्ताने का मन  करे?
घर से ज्यादा आराम  सफ़र में हो,
तो क्या फ़ायदा  बाहर  निकलने का,
बैठने से ज्यादा आराम  चलने में हो,
तो क्या फ़ायदा ऐसे चलने का?

मुझे दिखा दो उबड़-खाबड़ राह ,
जिसमें कांटे बिछे हों,
जहाँ दूर-दूर तक  कहीं
पेड़ों कि  छांव  न  हो,
जिस  पर चल कर लगे कि  चला हूँ,
फिर मंजिल  चाहे मिले न  मिले।

(ओंकार केडिया )

Photo Credit: Unknown

Tuesday, October 09, 2012

ईमानदार लोग

बहुत  पसंद हैं मुझे
ईमानदार  लोग ,
धारा के विरुद्ध  चलनेवाले ,
निज़ी स्वार्थों से परे,
अन्दर से मजबूत,
फिसलन  पर भी जो
डटकर खड़े रहते हैं।

बेईमानों की दुनियां में
ईमानदार  मिलते कहाँ हैं?
इनको सहेजना ज़रूरी है,
देखना ज़रूरी है
कि इनकी जमात 
कहीं लुप्त न हो जाय .

बहुत  पसंद हैं मुझे
ईमानदार लोग,
बहुत  इज्ज़त  है
मेरे मन  में उनकी,
मुझे बस  उनकी
यही बात  पसंद नहीं
कि वे अपने अलावा सबको
बेईमान  समझते हैं। 


(Onkar Kedia)

Diamond Earrings




चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी............ उसने कहा था

(1)

बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकॉर्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींरकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी‘ ‘हटो भाईजी‘ ‘ठहरना भाई जी‘ ‘आने दो लाला जी‘ ‘हटो बाछा‘ – कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चेतावनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं – ‘हट जा जीणे जोगिए’; ‘हट जा करमा वालिए’; ‘हट जा पुत्ता प्यारिए’; ‘बच जा लम्बी वालिए।‘ समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।

ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने
आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।

”तेरे घर कहाँ है?”

”मगरे में; और तेरे?”

” माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?”

”अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।”

”मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।”

इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, ”तेरी कुड़माई हो गई?”

इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत् मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुध्द बोली, ”हाँ, हो गई।”

”कब?”

”कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”

लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

(2)

“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।

इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहाँ दिन में पचीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”

“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”

“चार दिन तक पलक नहीं झपकी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो… ”

“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा – “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”

“सूबेदारजी, सच है,” लहनसिंह बोला – “पर करें क्या? हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाए।”

“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोयले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।”  कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला – “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!”

इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”

“हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।”

“लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम…”

“चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।”

“देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।”

“अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?”

“अच्छा है।”

“जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।”

“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”

दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए –
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियां वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!

(3)

रात हो गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।

“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”

“ पानी पिला दो।”

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा –– “ कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला, “ कँपनी छुट रही है। रोम–रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”

“अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो!”

“और तुम?”

“मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”

“ना¸ मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए…”

“हाँ¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन–बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरू उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।

“सच कहते हो?”

“और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा भर थी।

आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई, “सूबेदार हजारासिंह।”

“कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !” कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

“देखो¸ इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”

“जो हुक्म।”

चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, “ लो तुम भी पियो।”

पलक झपकते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, “लाओ साहब।”

हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?

शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैं! लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।

“क्यों साहब¸ हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”

“लड़ाई खत्म होने पर। क्यों¸ क्या यह देश पसंद नहीं?”

“नहीं साहब¸ शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है¸ पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे!

“हाँ, हाँ”

“वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!”

“बेशक पाजी कहीं का!”

सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्‌ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे।

‘हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’

“ऐसे बड़े–बड़े सींग! दो–दो फुट के तो होंगे?”

“हाँ¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”

“पीता हूँ। साहब¸ दियासलाई ले आता हूँ।” कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।

(4)

अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।

“ कौन? वजीरसिंह?”

“हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?”

“होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”

“क्या?”

“लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”

“तो अब!”

“अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा¸ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो¸ एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे। सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ¸ खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”

“हुकुम तो यह है कि यहीं– ”

“ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम – जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है।  मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।”

“पर यहाँ तो सिर्फ तुम आठ हो।”

“आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आँख मीन गौट्‌ट’ कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।

साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला, “क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो¸ ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन ‘डेम’ के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”

लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।

लहनासिंह कहता गया, “ चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़–पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक–बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो…”

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल–क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आये।

बोधा चिल्लाया- “ क्या है?”

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था¸ मार दिया’ और¸ औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे।

अचानक आवाज आई ‘वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतह!!’ और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।

एक किलकारी और, “अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरूजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरूख!” और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव -भारी घाव लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था¸ ऐसा चाँद¸ जिसके प्रकाश से संस्कृत–कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्‌ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत–बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा, “ तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”

“और तुम?”

“मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ, वजीरासिंह मेरे पास है ही।”

“अच्छा, पर..”

“बोधा गाड़ी पर लेट गया, भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।”

गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते–चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा, “तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”

“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।”

(5)

गाड़ी के जाते लहना लेट गया, “ वजीरा पानी पिला दे¸ और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।”

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।

लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब ‘धत्‌’ कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, “ हाँ, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू!’

सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?”

“वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”

पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी¸ या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है¸ फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।

जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेड़े में से निकल कर आया। बोला, “लहना¸ सूबेदारनी तुमको जानती हैं¸ बुलाती हैं। जा मिल आ।”

लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर ‘मत्था टेकना’ कहा। आसीस सुनी। लहनासिंह चुप।

“मुझे पहचाना?”

“नहीं।”

“तेरी कुड़माई हो गई -धत्‌ -कल हो गई – देखते नहीं¸ रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में..”

भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।

“वजीरा¸ पानी पिला” – ‘उसने कहा था।

स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है¸ लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों न बना दी¸ जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जीया।” सूबेदारनी रोने लगी, “अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे¸ आप घोड़े की लातों में चले गए थे¸ और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।”

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।

“वजीरा पानी पिला” – ‘उसने कहा था।

लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा¸ फिर बोला, “कौन ! कीरतसिंह?”

वजीरा ने कुछ समझकर कहा, “ हाँ।”

“भइया¸ मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसे ही किया।

“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस¸ अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”

वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।

कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा – फ्रान्स और बेलजियम – 68 वीं सूची – मैदान में घावों से मरा – नं0  77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

Bade Bhai Sahab by Munshi Premchand.........बड़े भाईसाहब (मुंशी प्रेमचंद )

मेरे  भाईसाहब मुझसे पांच  साल बड़े  थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्‍होने भी उसी उम्र में पढ़ना  शुरू किया था जब मैने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्‍व के मामले में वह जल्‍दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्‍ता न हो, तो मकान कैसे पाएदार बने।

मैं छोटा था, वह बड़े  थे। मेरी उम्र नौ साल कि,वह चौदह साल ‍के थे। उन्‍हें मेरी तम्‍बीह और निगरानी का पूरा जन्‍मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्‍म को कानून समझूँ।

वह स्‍वभाव से बड़े  अघ्‍ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़यों , कुत्तों, बिल्लियों की तस्‍वीरें बनाया करते थें। कभी-कभी एक ही नाम या शब्‍द या वाक्‍य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुन्‍दर अक्षर से नकल करते। कभी ऐसी शब्‍द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्‍य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत देखी-स्‍पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्‍याम, श्रीयुत राधेश्‍याम, एक घंटे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्‍टा की‍ कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ। वह नवी जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकि रचनाओ को समझना

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की कहानी------बदला

अंधेरे डिब्बे में जल्दी-जल्दी सामान ठेल, गोद के आबिद को खिड़की से भीतर सीट पर पटक, बड़ी लड़की जुबैदा को चढ़ा कर सुरैया ने स्वयं भीतर घुस कर गाड़ी के चलने के साथ-साथ लम्बी साँस ले कर पाक परवर्दिगार को याद किया ही था कि उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो आकार बैठे हुए थे, वे अपने मुसलमान भाई नहीं सिख थे! चलती गाड़ी में स्टेशन की बत्तियों से रह-रह कर जो प्रकाश की झलक पड़ती थी, उस में उसे लगा, उन सिखों की स्थिर अपलक आँखों में अमानुषी कुछ है। उन की दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उस की काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है; और तेज धार-सा एक अलगाव उन में है, जिसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा! रोशनी इस के लिए काफी नहीं थी, पर सुरैया ने मानो कल्पना की दृष्टि से देखा कि उन आँखों में लाल-लाल डोरे पड़े हैं, और…और…वह डर से सिहर गयी। पर गाड़ी तेज चल रही थी, अब दूसरे डिब्बे में जाना असम्भव था। कूद पड़ना एक उपाय होता, किन्तु उतनी तेज गति में बच्चे-कच्चे लेकर कूदने से किसी दूसरे यात्री द्वारा उठा कर बाहर फेंक दिया जाना क्या बहुत बदतर होगा? यह सोचती और

Monday, October 08, 2012

Signs and Symptoms of a heart attack

Often people expect a heart attack to be dramatic like it is in the movies. But in reality — most often — that is not the case. This article thus spells out the signs and symptoms of a heart attack.

What happens during a heart attack?

During a heart attack, the blood flow to the heart muscle is either reduced or completely stops. This typically happens because of a blood clot that is blocking an artery.
When the heart muscle does not get oxygen-rich blood, it ceases to work.

Some common heart attack symptoms:

  • A heart attack often causes chest pain.
  • There is a feeling of fullness or a clasping pain in the centre of the chest. Most victims describe the pain as akin to an elephant standing on the chest (extreme pain). It usually lasts for about 15 minutes.
  • One also experiences shooting pain in the shoulders, neck, arm, back and sometimes even the teeth and jaw.
  • One finds increasing episodes of chest pain.
  • Prolonged pain in the upper abdomen.
  • Shortness of breath.
  • The victim might experience heavy sweating.
  • Since the heart’s pumping action is severely impaired during a severe heart attack, the victim might lose his/her consciousness.
  • Nausea and vomiting
  • In rare cases, as in patients who are diabetic, the heart attack may not be very painful, and sometimes can even be entirely painless.


  Other heart attack symptoms

The elderly, diabetics, people on steroids as well as women are less likely to have obvious symptoms like severe chest pain (as often seen in men). These are some symptoms they are likely to have:
  • Pain in the abdomen
  • Heart burn
  • Sweaty skin
  • Unusual tiredness
  • Dizziness or light-headedness
  • Nausea
  • Tightness or pain in the neck, shoulder or upper back


Heart attack symptoms are not the same for all…

Not everyone who has a heart attack has the same symptoms. Many a time, we also tend to ignore a heart attack thinking it might be mere abdominal discomfort due to gas pains or indigestion. If you have more than a few symptoms listed above, then you are likely to be having an attack. Get emergency help immediately.

What to do in case of a heart attack?

  • Rush to a hospital: If you recognise that you or someone around is having a heart attack, get immediate medical help.
  • Give Disprin (Asprin): As soon as you recognise it is an attack, crush a disprin, dissolve it in water and make the person drink it.
  • Emergency numbers: Every office and home must keep a list of emergency numbers like that of an ambulance service, hospital.


A heart attack is different from a cardiac arrest

Do not confuse a heart attack with cardiac arrest. In the case of a cardiac arrest, the heart suddenly stops. It occurs due to an electrical disturbance that obstructs the heart’s pumping function, which results in stopping blood flow to the rest of the body.

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