Tuesday, November 06, 2012

विस्साव शिंबोर्स्का की एक कविता



मेरे लिए दुखांत नाटक का सबसे मार्मिक हिस्सा

इसका छठा अंक है

जब मंच के रणक्षेत्र में मुर्दे उठ खड़े होते हैं

अपने बालों का टोपा सम्भालते हुए

लबादों को ठीक करते हुए


जब जानवरों के पेट में घोंपे हुए छूरे निकाले जाते हैं

और फांसी पर लटके हुए शहीद

अपनी गर्दनों से फंदे उतारकर

एक बार फिर

जिंदा लोगों की कतार में खड़े हो जाते हैं

दर्शकों का अभिवादन करने.


वे सभी दर्शकों का अभिवादन करते हैं.

अकेले और साथ-साथ

पीला हाथ उठता है जख्मी दिल की तरफ

चला आ रहा है वह जिसने अभी-अभी खुदकुशी की थी

सम्मान में झुक जाता है

एक कटा हुआ सिर.


वे सभी झुकते हैं

जोड़ियों में…..

ज़ालिम मज़लूम की बाहों में बाहें डाले,

बुझदिल बहादुर को थामें हुए

नायक खलनायक के साथ मुस्कराते हुए.


एक स्वर्ण पादुका के अंगूठे तले शाश्वतता कुचल दी जाती है.

मानवीय मूल्यों का संघर्ष छिप जाता है एक चौड़े हैट के नीचे.

कल फिर शुरू करने की पश्‍चातापहीन लालसा!


और अब चला आ रहा है वह मेहमान.

जो तीसरे या चौथे अंक या बदलते हुए दृश्यों के बीच

कहीं मर गया था,

लौट आये हैं

बिना नाम-ओ-निशान छोड़े खो जानेवाले पात्र

नाटक के सभी संवादों से ज्यादा दर्दनाक है यह सोचना

कि ये बेचारे

बिना अपना मेकअप या चमकीली वेशभूषा उतारे

कब से मंच के पीछे खड़े इंतजार कर रहे थे.


सचमुच नाटक को सबसे ज्यादा नाटक बनाता है

पर्दे का गिरना

वे बातें जो गिरते हुए पर्दे के पीछे होती हैं

कोई हाथ किसी फूल की तरफ बढ़ता है

कोई उठाता है टूटी हुई तलवार

उस समय…..सिर्फ उस समय

मैं अपनी गर्दन पर महसूस करती हूं

एक अदृश्य हाथ

एक ठंडा स्पर्ष.


(विस्साव शिंबोर्स्का ) 

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