Monday, December 31, 2012

Wednesday, December 26, 2012

Mere zameer ko is qadar nichoda na karo....


Mere zameer ko is qadar nichoda na karo !! 
Har musalmaan ko dehshatgardi se joda na karo !! 

Hum ne bhi ganwaayii hain jaane azadi ke liye !! 
Tum hame shaq ki nazar se dekha na karo !! 

Hindu ho musalman ho sikh ho ke isaaii ho sub ek hain!! 
Tum hamein hi mazhab ke tarazo me tola na karo !! 

Dekh ke masoomon ki laashon ko jitna tum roye utna hum roye hain !! 
Tum hamein haiwaaniyat ki zaat se joda na karo !! 

Zara dekho us lachaar maa, biwi, aur bache ko !! 
Masoomon ki lashoon per siyasath ki chadar ko lapeta na karo !! 

Watan ke baani ho agar to ekta per  wishwas karo !! 
Mazhab ke naam per voton ko batora na karo !! 

Jo kare watan se gaddari wo musalmaan nahi shaitaan hai !! 
Tum mere paak mazhab ko is shaitaaniyat se joda na karo !! 

ਮੈਂ-ਔਰਤ-ਦੀ-ਕੀ-ਸਿਫਤ-ਕਰਾਂ......



ਮੈਂ ਔਰਤ ਦੀ ਕੀ ਸਿਫਤ ਕਰਾਂ,
ਇਨਸਾਨ ਖੁਦ ਔਰਤ ਦਾ ਜਾਇਆ ਹੈ,,

ਮੈਂ ਮਾਂ ਆਪਣੀ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚੋਂ,,,
ਹਰ ਵਾਰ ਹੀ ਰੱਬ ਨੂੰ ਪਾਇਆ ਹੈ,,,,

ਇਕ ਔਰਤ ਮੇਰੀ ਦਾਦੀ-ਮਾਂ,,
ਜਿਸ ਕਰ ਕੇ ਮੇਰੇ ਬਾਪ ਦੀ ਮੇਰੇ ਸਿਰ ਤੇ ਛਾਇਆ ਹੈ,,,,,

ਹਰ ਘਰ ਵਿਚ ਔਰਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ,,
ਔਰਤ ਹਰ ਘਰ ਦਾ ਸਰਮਾਇਆ ਹੈ,,,,,

ਫੇਰ ਪਤਾ ਨੀ ਦੁਨਿਆ ਨੇ,,,
ਕਿਓਂ ਧੀ ਨੂੰ ਮਾੜਾ ਬਣਾਇਆ ਹੈ,,,,,,,,,

Friday, December 21, 2012

व्यर्थ नहीं हूँ मैं......

व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे ही कारण हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।

मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊँचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।
मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।

स्त्री हूँ मैं!
हो सकती हूँ पुरूष...
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए...
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष
मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित, तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।

सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम........


(कविता किरण)

Tuesday, December 18, 2012

पवित्रता


कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं

'पवित्रता' ऐसा ही एक शब्द है
जो अब व्यवहार में नहीं,
उसकी जाति के शब्द
अब ढूंढें नहीं मिलते
हवा, पानी, मिट्टी तक में

ऐसा कोई जीता जागता उदहारण
दिखाई नहीं देता आजकल
जो सिद्ध और प्रमाणित कर सके
उस शब्द की शत-प्रतिशत शुद्धता को !

ऐसा ही एक शब्द था 'शांति'.
अब विलिप्त हो चुका उसका वंश ;
कहीं नहीं दिखाई देती वह --
न आदमी के अन्दर न बाहर !
कहते हैं मृत्यु के बाद वह मिलती है
मुझे शक है --
हर ऐसी चीज़ पर
जो मृत्यु के बाद मिलती है...

शायद 'प्रेम' भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में...

ज़िन्दगी से पलायन करते जा रहे हैं
ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द
जो कभी उसका गौरव थे.

वे कहाँ चले जाते हैं
हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?

शायद वे एकांतवासी हो जाते हैं
और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं
कि फिर उन तक कोई भाषा पहुँच नहीं पाती.......


(कुंवर नारायण)