-जब वे सरकारी दफ़्तर पहुँचे, वे हाँफ रहे थे। वह दफ़्तर बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर था। वे कुछ दिनों से कई बार यहाँ आते रहे हैं। वे बड़ी मुश्किल से सीढ़ियाँ चढ़कर इस दफतर तक पहुँच पाते हैं। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, उन्हें एकाद दो बार थकावट भरा चक्कर सा आ जाता है। ऐसे में वे अपनी छड़ी किनारे टिकाकर, किसी कुर्सी पर बैठ जाते हैं। दफ़्तर के हर मंजिल पर प्रतीक्षार्थियों के लिए कुछ कुर्सियाँ रखी हैं। जहाँ बैठकर उन्हें सुस्ताना पड़ता है। पर तीसरी मंजिल तक पहुँचते पहुँचते वे थककर चूर हो जाते हैं। उन्हें अपने दिल की धड़कन कान में बजती सुनाई देती है। पूरे कपड़़े पसीने से भीग जाते हैं और एक बार जो छाती की धौंकनी चलनी चालू होती है, वह फिर घण्टों तक बंद नहीं होती।
तीसरी मंजिल पर पहुँचकर वे उस कमरे तक पहुँचते हैं। वे पिछले छह माह में कई बार यहाँ आ चुके हैं। उस कमरे के बाहर पड़ी बैंच पर वे थोड़ा देर
सुस्ता लेते हैं। फिर धीरे-धीरे अपनी छड़ी टेकते हुए कमरे में उस क्लर्क की टेबल तक पहुँचते हैं।
सुस्ता लेते हैं। फिर धीरे-धीरे अपनी छड़ी टेकते हुए कमरे में उस क्लर्क की टेबल तक पहुँचते हैं।
उन्हें वह क्लर्क हमेशा उसी टेबल पर मिला है। उस दिन भी वह वहीं था। उन्हें हर बार उस क्लर्क को वहाँ पाकर संतोष होता है। वह एक सी मुद्रा में फाइल को गोद रहा होता है। उसके एक तरफ टेबल पर फाईल का अंबार लगा होता है और दूसरी तरफ लाल पीले कपड़ों में लिपटी कुछ फाईलें बेतरतीब ढंग से जमीन पर पड़ी होती हैं।
उस दिन वे सीधे उस क्लर्क की टेबल के पास पहुँचे और उसकी टेबल पर दो फोटो रख दीं। एक ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो जो आकार मे थोड़ी बड़ी थी और पुरानी होने के कारण ब्लैक एण्ड व्हाइट की बजाय थोड़ा सीपिया रंग की हो गई थी और दूसरी एक रंगीन फोटो जो हाल ही में खींची गई एक नई फोटो है।
क्लर्क अपने काम में लगा रहा। उसने अपने चश्मे के कांच और भौंह के बीच से अपनी आँख चुराते हुए उन्हें देख लिया था। उसे पता चल गया था कि वे उसके सामने खड़े हैं। उसे यह भी पता था कि वे क्यों खड़े हैं। पर फिर भी वह फाइलों को गोदने में लगा रहा। वह कुछ यूँ प्रदर्शित कर रहा था, कि वह व्यस्त है। उसके पास और भी जरूरी काम हैं। उसे, उनकी परवाह नहीं। ऐसा प्रदर्शित कर वह उन्हें टालना चाह रहा था। पर उन्हें यह बात समझ में नहीं आई। वे उसकी टेबल के सामने खड़े रहे। उन्हें उम्मीद थी कि वह क्लर्क उनकी ओर देखेगा। वे पहले भी कई बार आ चुके हैं। उन्होने क्लर्क से कई बार बात की है। कभी-कभी देर तक बात की है। क्लर्क उन्हें जानता है। वह उन्हें अवश्य तवज्जो देगा। पर क्लर्क ने बहुत देर तक उनकी ओर नहीं देखा। थोड़ी देर बाद वे टेबल के पास रखी बिना हत्थे वाली कुर्सी पर बैठ गये। वे तिहत्तर वर्ष के हैं। यहाँ तक आते-आते वे इतना थक जातें है कि देर तक खड़े नहीं रह पाते। उन्हें बैठना पड़ता है।
सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते वे कई बार खुद से खिन्न हो जातें है। वे मन ही मन इतने कड़वे हो जाते हैं, कि अपने शरीर को और सीढ़ियों को गालियाँ देने लगते है। ये कम्बख़्त सीढ़ियाँ खत्म होने का नाम ही नहीं लेती........... बूढ़े आदमी का ख्याल ही नहीं। कम से कम बूढ़े आदमी के लिए तो इन्हें खत्म होना चाहिए। साँप की तरह बढ़ती जाती हैं। और यह शरीर...........। कितनी तेजी से कब्र ढूँढ रहा है। इन टाँगो को जाने क्या होता जा रहा है। ये टाँगे तो उनका कहा मानती ही नहीं। जब से अर्थराइटिस हुआ है, बिल्कुल लक्कड़ सी हो गई हैं। जरा सा घुटना क्या मोड़ लो, पूरा पैर सूजकर शकरकंद जैसा हो जाता है।
वे थोड़ी देर तक कुर्सी पर बैठे रहे।
वे बीसियों बार इस दफ़्तर आ चुके हैं। उनके बेटे जीवेन्द्र की मृत्यु के बाद सरकार ने कहा था कि उन्हें पैसा मिलेगा। आदेश भी आ गया है। पर क्लर्क कहता है कि उन्हें कोई ऐसा सबूत पेश करना पड़ेगा जिससे सिद्ध हो कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। उन्होंने घर में बहुत छानबीन की। दोनों अलमारियाँ, बड़ा संदूक, जीवेन्द्र की अलमारी, टेबिलों के ड्रार और यहाँ तक कि दीवान का बॉक्स और उसमें रखा सारा सामान और तो और उन्होने बुक शैल्फ की एक-एक कितब को पलटकर-झटकारकर देखा.......। शायद कहीं कोई ऐसा कागज हो, जो प्रमाणित करे कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। पर ऐसा कोई कागज नहीं मिला। जीवेन्द्र की मार्कशीट, उसका बर्थ सर्टिफिकेट,.......... सब जीवेन्द्र के पास ही था। पता नहीं उसने कहाँ रखा था। अब बहुत मुश्किल हो गई। पहले-पहल उन्हें क्लर्क ने बताया था कि मुनिस्पलिटि से दूसरा बर्थ सर्टिफिकेट मिल सकता है। उन्होनें मुनिस्पलिटी के भी चक्कर लगाये। पर वहाँ इतना पुराना रिकार्ड नहीं है। वहाँ का अधिकारी कहता है, पुराना रिकार्ड ना होने से डुप्लिकेट बर्थ सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा। उन्होंने यह पूरी कहानी क्लर्क को सुनाई। क्लर्क ने उनसे कहा कि वे यूनिवर्सिटी से जीवेन्द्र की मार्कशीट ले सकते है। फिर उन्होनें युनिवर्सिटी के चक्कर लगाये। युनिवर्सिटी के सेक्शन ऑफिसर ने उनसे कहा कि डुप्लिकेट मार्कशीट के लिए उन्हें ओरिजनल मार्कशीट के गुमने की एफ. आई. आर. पुलिस के पास करवानी पड़ेगी.........। अब इस उम्र में वे कहाँ-कहाँ भटकें। एक दिन उन्होनें क्लर्क से कह दिया कि वे भाग दौड़ नहीं कर पाते हैं। उनका शरीर साथ नही देता है। वे क्या करें? फिर शालिनी को भी देखना पड़ता है। शालिनी उनकी पत्नी है। उनसे तीन साल छोटी है। उसकी शुगर बहुत बढ़ गई है। उसे हाइपोग्लाइसीमिया के कारण चक्कर आते हैं। जीवेन्द्र की मृत्यु को एक साल होने आया। पर वे आज भी घुटती हैं। ढंग से खा पी नहीं पाती हैं। डॉक्टर कहता है कि ऐसा ही रहा तो प्राब्लम और बढ़ जायेगी। एक बार तो शालिनी की शुगर इतनी लो हो गई थी, कि उसे गश आ गया था। वे घबरा गये थे। वे शालिनी को देर तक अकेला नहीं छोड़ सकते। दूसरा कोई देखने वाला नहीं है।
उस दिन क्लर्क को यह सब कहते हुए वे कुछ रुआँसे हो गये थे। फिर उन्हें हमेशा की तरह खुद पर, अपने शरीर पर खीज हो आई। वे अपनी तुलना अपने दोस्त विशेश्वर के साथ करते हैं। विशेश्वर उन्हीं की उम्र का है। पर वह पूरी तरह भला चंगा है। छिहत्तर साल में भी चकाचक। उसे ना तो दमा है और ना आर्थराइटिस। वे खुद को बहुत ढ़ांढ़स बंधाते हैं। पर क्या करें शरीर साथ नहीं देता। उन्हें अपने शरीर को धकियाना पड़ता है।
उस दिन क्लर्क ने उनकी सारी बातें सुनी थी। उस दिन से उन्हें यह क्लर्क ही सब कुछ नजर आने लगा है। उन्हें लगता है, यह क्लर्क उनकी समस्या का देर सबेर निदान निकाल ही लेगा। जो काम मुनिस्पलिटी और युनिवर्सिटी में नहीं हो पाया, वह यह क्लर्क कर सकता है। एक तरह से उन्होनें खुद को आश्वस्त किया है कि यह क्लर्क उनका काम कर सकता है। फिर यह दफ़्तर भी उनके घर से पास ही है। वे यहाँ आसानी से आ जा सकते हैं। दिनों दिन वे मजबूर से होते जा रहे है। वे इस दफ़्तर से आगे नहीं जा सकते। वे इस दफ़्तर से आगे उम्मीद नहीं कर सकते।उनके शरीर ने उन्हें ज्यादा उम्मीद करने लायक नहीं छोडा है। उनकी उम्मीदें इस दफ़्तर और क्लर्क पर आकर रुक गई हैं। वे अपने शरीर को तो किसी तरह धकियाकर आगे बढ़ा लेते हैं, पर उम्मीदों को नहीं।
‘ये क्या है ?’
क्लर्क ने कुछ iढढाई के साथ, उन फोटुओं की ओर इशारा कर उनसे पूछा। उन्होनें अपना गला खंखारकर साफ किया। वे झिझक रहे थे। उन्होने जानबूझकर अपना गला खखारा। पर जब उस दिन शालिनी ने उनसे कहा था कि वे ये फोटुयें क्लर्क को दिखायें, तब उन्हें कुछ भी अटपटा नहीं लगा था। वे तुरंत तैयार हो गये थे। शालिनी ने कहा था कि शायद इन फोटुओं से बात बन जाये। और उन्हें लगा कि यह ख्याल उन्हें क्यों नहीं आया? उन्हें लगता है कि इन फोटुओं से बेहतर कुछ भी नहीं। कितना आसान है, यह बताना कि यह जीवेन्द्र है और यह मैं। देखो ये हम दोनों है और ये शालिनी है। देखो..............। क्या अब भी किसी प्रमाण की ज़रूरत है। क्या अब भी शंका है। ये फोटुयें कितना स्पष्ट कहती हैं। ये फोटुयें कहती हैं, कि मैं ही हूँ जीवेंद्र का पिता। हाँ वे ही......कितना साफ है कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। और यूँ सोचते हुए उनका मन भारी हो जाता, जैसे बरसात में भीगकर कपड़े भारी हो जाते हैं। जैसे मरने के बाद शरीर भारी हो जाता है। जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर खुद को, अपने जिगर के टुकड़े, अपने बेटे का पिता बताने के लिए, भटकते हुए, अक्सर उनका मन भारी हो जाता है। हाँ उनका मन दोनों तरह से भारी हुआ है। कभी बरसात में भीगे कपड़ों की तरह, तो कभी मरी हुई लाश की तरह....। उन्होंने अपने को झटकारा। वे मन के भारी होने वाली बात को झटककर अलग करना जाहते थे। उन्होंने खुद को उस बात से अलग कर लिया।
ऐसा होता, तो ठीक रहता। ऐसा करते तो ठीक रहता। पीछे बहुत कुछ ‘ऐसा’ छूट गया है जो कुछ और होता तो ठीक रहता। अतीत में छूटे हुए कुछ गड्ढे जिनमें मेरा पैर चला जाता है और मैं मुंह के बल गिर पड़़ता हूँ।
गीता को मरे छह साल हुआ। कभी सोचा ही नहीं कि दुबारा ब्याह करूँ। माँ पहले साल से ही मेरे पीछे पड़़ गई थीं। ब्याह कर ले, ब्याह कर ले, ....रटती रहतीं और वह उन पर झल्ला जाता। पता नहीं क्यों गीता की खाली जगह किसी और को देते हुए अच्छा नहीं लगता था। ऐसा ख्याल मन में आते ही एक अजीब सी मतली सी होने लगती थी। उसने माँ को कई बार कहा था, कि वह अकेले रह सकता है पर दुबारा ब्याह नहीं करेगा। पर माँ तो कभी समझ ही नहीं पाईं। आज भी यही कहती हैं, कि दुबारा ब्याह कर लेता तो ठीक रहता। पर आज कभी-कभी उसे लगता है, कि माँ ठीक कहती थीं। उसे गीता की खाली जगह किसी और को दे देनी थी। वह अपने भीतर के एक हिस्से को काटकर, फेंककर ऐसा कर सकता था। पर उसने नहीं किया। माँ सही कहती थी। उसने गलती की। वह शायद दुबारा शादी कर सकता था।
‘माँ और क्या कह रही थीं?’
‘जेल से छुट्टी का पूछ रही थीं। सो मैंने बता दिया अभी मंजूर नहीं हो पायेगी। तीन सौ दो के मुलजिम की छुट्टी बड़ी कठिन है....कहो बरसों ना मिले।‘
मैं चुप हो गया। उसने शायद मेरा चेहरा पढ़ लिया । फिर अपनी तरफ से ही कहने लगा-
‘देख विभु इस बारे में मैं बार-बार झूठ नहीं बोल सकता। हर बार तेरी माँ कहती है कि, छुट्टी का क्या हुआ? पिछली बार तो कहा था, कि अबके मंजूर हो जायेगी, फिर काहे नहीं हुई? दरख्वास्त गई के नहीं? जेलर सा’ब क्या कह रहे थे? तुम मिले थे क्या? क्यों नहीं मिले? काहे नहीं बात की?....ये सब किचर-पिचर अपने से नहीं होती। सो मैंने सही-सही बता दी।‘
मैं इस उम्मीद को बने रहने देना चाहता था। मुझे अच्छा नहीं लगा कि माँ की यह उम्मीद थोड़ा सा बिखर गई। वह एक अनिश्चित सा इंतजार करती रहती थी, कि विभु की छुट्टी मंजूर होगी और वह कुछ दिनों के लिए घर आयेगा। उसे भी ऐसा सोचकर अच्छा लगता, कि माँ को यकीन है छुट्टी मंजूर हो जायेगी।क्या मालूम यह बात सही हो जाय। ऐसा कई बार हुआ है। माँ सोचती है और वह बात हो जाती है। यह उम्मीद बनी रहती तो ठीक रहता....।
छुट्टी वाली बात पर माँ ने कुछ कहा?’
‘नहीं...कुछ नहीं कहा....।‘
‘कुछ तो कहा होगा।‘
‘नहीं बस चुप हो गईं..।‘
‘काकू घर आये थे।‘
‘हाँ माँ बता रही थीं, दो माह पहले आये थे। बस एक रोज को। कुछ गल्ला रख गये हैं। कह रहे थे अब ना हो पायेगा। यह आखरी बार है। िभु को बताओ वही देखे...। तो माँ ने भी उसे खरी-खरी सुना दी। कह रही थीं, थोड़़ा चिढ़ गया था।‘
‘पर माँ को ऐसा नहीं कहना था।‘
‘काहे...।‘
‘काकू के अलावा अब और कौन है, जो उनकी मदद कर सके।‘
‘पर अब वे नहीं आयेंगे मदद करने। माँ खुद कह रही थी। वो साफ कह गये हैं। अब वे नहीं आयेंगे।‘
‘स्साले...सब स्वार्थी हैं...सब। जब तक मतलब है, चिपके रहेंगे गुड़ में मक्खी की तरह और जब मतलब पूरा हो गया पलट के भी नहीं देखते....पुराने रास्ते भूल जाते हैं।‘
हम दोनों थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे। वह सुट्टा फूंकता रहा।
‘देबू कैसा है?’
‘पूरे समय घर में बंद रहता है। माँ घर को भीतर से बंद रखती हैं। कहीं बाहर चला गया तो कहाँ ढूँढने जायेंगी। उसकी भी जेल ही हो गई समझो....।‘
‘देबू घर में कैसे रहता होगा?’
‘वह तो बस मौका ताकता था, कि कब घर का दरवाजा खुले और वो ये भाग, वो भाग....। गली मोहल्लों में ठुमकता घूमता। मुझे ही दौड़़ना पड़़ता था, उसके पीछे। उसके पीछे भागते-भागते मैं हाँफ जाता था। एक खेल सा हो जाता था। माँ कहतीं, पूरे मोहल्ले किलकारी मारता घूमता है, इसे नजर लग जाती है, सो मैं ध्यान रक्खा करूँ कि कहीं बाहर ना भाग जाये। पर देबू कहीं मानता था। हर रोज माँ नमक और मिर्च से उसकी नजर उतारती थीं। मुझे उसे यूँ भागता देखकर बड़ा मजा आता था। मैं जानबूझकर घर का दरवाजा खोल देता था, ताकि वह घर से बाहर भाग जाये और मुझे उसे उसके पीछे भागते हुए पकड़़ने का मजा आये। पर अब वह घर में बंद सा है।’
वह घर में कैसे रह लेता होगा? वह तो रह ही नहीं सकता था। क्या वह याद करता होगा कि वह कैसे किलकारी मारते हुए भागता था और मैं उसके पीछे-पीछे दौड़ता था। क्या वह इतना बड़ा हो गया है कि इन बातों को सोच सके? ....घर में बंद-बंद उसे घुटन नहीं होती होगी? मुझे अपने भीतर कुछ बिखरता सा लगा। जैसे पतझर में सूखे पत्तों का ढेर जो हवा में बिखरता रहता है।
वह सो गया था। मुझे नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर बाद किसी के बूटों की आवाज़ सुनाई दी। वे जेलर साहेब थे। जब वे मेरी कोठरी के सामने से गुजरे मैं उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
‘साहेब...मेरे को सिर्फ़ दो रोज के लिए छोड़ दीजिये। मैं वापस आ जाऊँगा। यकीन मानो साहेब बराबर लौट आऊँगा। सिर्फ़ एक बार.....।’
‘तुम अजीब पगल हो....यह क्या मेरे बस की बात है।‘
‘साहेब आप कर सकते हो...साहेब मेरे एक बेटा है, देबू ....।‘
‘यह संभव नहीं है। ...अच्छा ठीक है, तुम एप्लीकेशन लगा दो, तुम्हारे पैरोल का मामला सरकार को मंजूरी के लिए भेज देते हैं।‘
मेरी पैरोल दो बार नामंजूर हो चुकी थी। जेलर साहेब बता रहे थे कि, पुलिस ने रिपोर्ट दी थी, कि मैं शातिर हूँ। अगर छूट गया तो बवाल करूँगा। सरकार ने पुलिस की रिपोर्ट को सही माना और मेरी छुट्टी नामंजूर हो गई। मैं फिर से जेलर साहेब के सामने घिघियाने लगा। ‘साहेब छुट्टी तो नामंजूर हो जाती है। ...आप तो सक्षम हो दो रोज के लिए छोड़़ दो साहेब... सिर्फ़ दो रोज के लिए।‘
अबकी बार जेलर साहेब ने मुझे घुड़क दिया। और आगे बढ़ गये।
उस रात फिर से मुझे नींद नहीं आई। मैं पूरी रात जागता रहा। उस रात रौशनदान के पर के काले आकाश को देखकर मुझे बचपन की एक बात याद आई। तब मैं बहुत छोटा था। तब पिताजी ज़िंदा थे। गर्मियों के दिन थे और मैं रात को पिताजी के पास सोता था। पिताजी मुझे एक कहानी सुनाते और कहानी के बाद मुझसे पूछते-
‘विभु तुम कौन सा तारा लोगे?’
मैं हर बार एक ही चमकीले तारे की ओर इशारा करता। फिर कुछ दिनों बाद माँ ने उस तारे का नाम रख दिया - विभु का तारा। वह तारा आज भी जेल की कोठरी से रौशनदान के पार दिख रहा है। एक अजीब सी इच्छा हुई। काश वह तारा रौशनदान पर कर जेल की इस अंधियारी कोठरी में आ जाता। अगर ऐसा हो जाय तो मैं उस तारे को अपनी मुट्ठी में भींच लूँगा....ठीक उसी तरह जिस तरह लोगों के हाथों में हमारी कुछ धड़कनें भिंची होती हैं, जिन्हें वे गिड़गिड़़ाने पर और नाक रगड़़ने पर भी नहीं देते हैं। मैं भी उस तारे को अपनी मुट्ठी में भींच लूँगा और किसी को नहीं दूँगा, कोई माँगे तब भी नहीं...कोई गिड़गिड़ाये तब भी नहीं...। हाँ मैं नहीं दूँगा।
पीछे -- कितनी अजीब चीज है, किसी बात को याद करना। जैसे बैकवॉटर होता है। समुद्र में डूबने वाली नदी में रोज चढ़ता समुद्र के ज्वार का बैकवॉटर। वह नदी के प्रवाह के विपरीत नदी में चढ़ता है। नदी का जो पानी समुद्र में मिल जाता है, समुद्र में डूब जाता है और यूँ खुद को खोकर समुद्र हो जाता है, वही पानी फिर से नदी में चढ़ता है। नदी में उतरता है। नदी के बहाव के विपरीत नदी में फैलता जाता है। कभी आपने देखा है, यह दृश्य। यह समुद्र किनारे का सामान्य दृश्य है। वहाँ यह रोज होता है। हमारे जीवन में भी यह रोज होता है। एक ज्वार के साथ, यादें चढ़ती हैं समय की धार के विपरीत। फिर ज्वार खत्म होने लगता है और यादें समय के प्रवाह के विपरीत उतरती हैं और फैलने लगती हैं। पता ही नहीं चलता है कि, कहाँ है बहते समय की धार और चढ़कर घुलती यादें। सबकुछ फैलने लगता है और यूँ समुद्र के किनारे एक झील सी बन जाती है। वह झील सा इकट्ठा पानी देर तक बना रहता है। हम खुद में डूबे रहते हैं। पर फिर चढ़े हुए पानी को वापस जाना होता है। यादों को लौटना होता है। यादें लौटती हैं। पानी वापस समुद्र में उतरता है। दिन फिर से चल निकलता है। नदी वापस बहने लगती है। सारा पानी फिर से समुद्र में मिलने लगता है। दिन अपनी धार पकड़ लेता है। रुका हुआ समय बहने लगता है।
उन्हें क्लर्क से फोटो के बारे में कहते हुए अच्छा लग रहा था। यह तस्वीर अक्सर वे और शालिनी ही देखते रहे हैं। वे दोनों ही इस पर बात करते रहे हैं। उन्हें नहीं याद कि यह तस्वीर उन्होनें किसी और को इस तरह दिखाई हो। पूरी संजीदगी के साथ। खुलकर। कभी कदास घर आने वाले लोगों में से कुछ ने पुराना एलबम पलटते हुए एक उड़ती नजर से इस फोटो को देखा होगा। पर उन्हें नहीं याद कि किसी को उन्होंने इस फोटो की बात बताई हो। शायद ही किसी और को इस फोटो की बात पता हो। उन्होनें इस फोटो के बारे में आज पहली बार किसी बाहरी आदमी से बात की। हो सकता है, किसी और से भी की हो। पर उसे इस फोटो के बारे में इतना नहीं बताया होगा। बस इतना ही कहा होगा-यह जीवेन्द्र के जन्म के समय की फोटो है। ये जो मेरी गोद में है। यह बच्चा यह जीवेन्द्र है। ....या ऐसी ही कोई बात। यह क्लर्क पहला आदमी है जिसे वे इस फोटो के बारे में इतना कुछ बता रहे हैं। बहुत विस्तार के साथ बता रहे हैं। वे इस फोटो को बहुत संभालकर रखते हैं। उस समय ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो ही खिंचती थी। कितनी अदभुत है, यह फोटो............।
क्लर्क बेपरवाह था। वह उनकी बात सुन भी रहा था और नहीं भी। वह कभी फाइल गोदने लगता, तो कभी बीच में उनकी ओर देखकर मुस्कराता। उसकी मुस्कान बनावटी थी। वह उन्हें टालने के कुछ संकेत दे रहा था, जिस पर उनका ध्यान नहीं गया। वे फोटो और उसकी बातों में डूबे रहे।
बहुत दिनों से उन्होनें खुद यह तस्वीर नहीं देखी थी। जीवेन्द्र की मृत्यु के बाद सारी फोटुयें और एलबम बक्से में बंद रहे। वे कुछ दिनों से उन फोटुओं को शालिनी के साथ शाम को चाय पीते हुए, पुराने दिनों की तरह देखना चाहते थे। वे कुछ दिनों से खुद को तैयार कर रहे थे। वे खुद को तैयार कर रहे थे कि, वे किस तरह इस फोटो का सामना करेंगे। जीवेन्द्र के मरने के बाद इस फोटो के मायने बदल गये है। उन्हें लगता है यह फोटो उन्हें कमजोर बना देगी। उनके भीतर जो चीजें इकट्ठा होकर, नया आकार ले रही हैं, वे फिर से इधर-उधर हो जायेंगी। उनका मन करेगा कि वे शालिनी के कंधों पर अपना सर रखकर थोड़ा देर रो लें। जैसा वे यदाकदा अवसाद और पीड़ा के समय करते आये हैं। पर वे ऐसा नहीं कर पायेंगे। उन्हें अब शालिनी का कंधा इतना कमजोर लगता है कि, अगर उन्होनें उस पर अपना सिर रख दिया तो वह कंधा टूट जायेगा। वे शालिनी के कारण खुद को रोक रखते है।
पुराने दिनों इस फोटो को देखकर वे और शालिनी लगभग एक सी बातें किया करते। शालिनी कहती- तुम तो जीवेन्द्र को इस तरह गोद लिये हो जैसे तुम्हें बच्चे पालने का एक्सपीरियेंस हो। वे कहते- देखो सबसे पहले माँ का रोल मैंने किया था। .............एक सी बातें। इस फोटो की बात कभी खत्म नहीं हुई। कभी रुकी ही नहीं। सोचा ही नहीं था कि एक दिन बात रुक जायेगी और फोटो बक्से में रख दी जायेगी। पूरे एक साल तक हम यह फोटो नहीं देखेंगे। इस फोटो पर कोई बात नहीं करेंगे। ...............कभी सोचा ही नहीं था।
फोटुओं का मतलब कितनी जल्दी बदल जाता है। उनका अर्थ कभी स्थाई नहीं रहता। फोटुयें बहुत निर्लज्जता के साथ बदल जाती हैं। अब इसी फोटो को लो। कहाँ तो शालिनी अक्सर इस फोटो को देखती रहती थी। वह कभी अघाती नहीं थी। गहराई से, टकटकी लगाकर वह इसे देखती रहती थी। इसे देखकर हँसती थी। इस पर चहकते हुए बात करती थी। और आज....। आज वह इसे देख भी नहीं सकती। उसे डर लगता है। वह टूटकर दु:खी हो जाती है। वह इस फोटो को देखकर अब नहीं हँस सकती। वह इस फोटो पर अब चहकते हुए बात नहीं कर सकती। और तो और वह इस फोटो का सामना तक नहीं कर सकती। वह इस फोटो को नहीं देख सकती। पूरे एक साल से यह फोटो लोहे के बक्से में अपने एलबम में दबी हुई पड़ी रही। जैसे इस फोटो के हाथों कोई पाप हो गया हो। शायद पाप ही हुआ है। इस फोटो ने एक पाप किया है। इस फोटो ने जीवेन्द्र की यादों को बनाये रखने का पाप किया है। वे यादें आज भी उस फोटो से निकलकर बाहर आ रही हैं। यह फोटो कभी जान ही नहीं पाई, कि ये यादें जिन्हें वह इकट्ठा कर रही है, एक दिन उसके नियंत्रण के बाहर हो जायेंगी। और तब सब फोटो का यह पाप जान जायेंगे। एक दिन ऐसा ही हुआ। यादें उसके नियंत्रण से बाहर हो गईं। शायद यह नहीं सोचा गया था, कि एक दिन सब कुछ खुल जायेगा। और यह फोटो एक अपराधी बन जायेगी। वे और शालिनी यह सब जान चुके हैं। जान चुके हैं कि इस फोटो ने पाप किया है। जिस दिन उन्होंने यह जाना, बस उसी दिन, ठीक उसी दिन उन्होंने उस फोटो को लोहे के बक्से में बंद कर दिया। यह उसके पाप का दण्ड है, कि वह उनकी नजरों के सामने ना आये। कैद रहे उन यादों के साथ, जो उसने इकट्ठी की हैं। पर वे इस फोटो को धोखेबाज नहीं कहते हैं। उन्हें इस फोटो से प्यार है। वे इसे धोखेबाज नहीं कह सकते।
उनके हाथ हल्के से काँप रहे थे। उनकी उंगलियों में दबी वह तस्वीर भी काँप रही थी। उस तस्वीर के ग्लेज़्ड पेपर पर पड़ रही टयूबलाईट की रोशनी भी काँप रही थी। पता नहीं वे उंगलियाँ क्यों काँप रही थीं ? शायद बुढ़ापा या शायद कुछ और..............। यूँ उंगलियाँ बेवजह नहीं काँपती।
‘ही वाज ए लवली चाइल्ड।’
उन्होनें धीरे से ãसãसाते हुए कहा। इतना धीरे कि क्लर्क नहीं सुन सकता था। वास्तव में यह बात उन्होनें अपने आप से कही।
उनका ध्यान ‘ही वाज’ पर नहीं गया। यह उन्हें अब सामान्य लगता है। यह कहते हुए उन्हें कोई हिच नहीं होता। पर कई बार जब वे अकेले होते हैं, तब वे खुद से जीवेन्द्र के लिए नहीं कह पाते हैं- ‘ही वाज’। पर दूसरों से कह पाते हैं। वास्तव में दूसरे के सामने खुद से भी कह पाते हैं। जीवेन्द्र के मरने के बाद एक साल में डाइल्यूट हो गया है- ‘ही वाज’। पर सिर्फ़ उनके लिए, शालिनी के लिए नहीं। उसके लिए ये शब्द आज भी जड़ हैं। उनका अर्थ समय नहीं बदल पाया है। वे इंतजार कर रहे हैं, कि चीजें शालिनी के लिए भी बदल जायें। पर अब इंतजार करते-करते वे थक गये हैं। वे मानते है कि कुछ चीजें छूट जायें। जैसे ट्रेन से फेंका डिस्पोजेबल गिलास होता है, जिसके लौटने की कोई उम्मीद नहीं। एक दिन ठीक इसी तरह फेंक दिया जायेगा- ‘ही वाज’। शालिनी के लिए यह बहुत जरूरी है। पर कब ? यह प्रश्न उन्हें थका डालता है।
क्लर्क से बात करते समय वे ये नहीं जान पाते हैं, कि कौन सी बात वे खुद से कह रहे हैं और कौन सी क्लर्क से। ज्यादातर वे खुद से ही कहते हैं। खुद से कहना अजीब है। लोग प्रश्न खड़ा करते हैं। भला कोई खुद से बात करता है। जब हम कहते हैं,तो माना जाता है कि हम किसी से कह रहे हैं। यह नहीं माना जाता,कि हम जो कह रहे हैं वह हम खुद से कह रहे हैं। अजीब सी दादागिरी है। अगर हम खुद से कहें तो भी कहा जाता है, कि हम किसी और से कह रहे हैं। हमारी हमसे ही कही बात, किसी और से कही बात बताई जाती है। उस बात पर से हमारा हक छीन लिया जाता है। पर कई बार हम भूल जाते हैं, कि ऐसा है। कि यही माना जाता है। हम जानबूझकर भूल जाते हैं। हम भूलने का नाटक करते हैं। और खुद से बात करने लगते हैं। हमें खयाल ही नहीं आता कि वह बात हमारी बात नहीं मानी जा रही है। ........वे खुद से बात करते समय, क्लर्क तक अपनी बात जाने देते हैं। उनके लिए इस बात का मतलब नहीं है, कि वे किससे बात कर रहे हैं। उन्हें खुद से कुछ कहना है। क्लर्क का वहाँ होना उनके लिए बेमानी सा है।
वे क्षण भर को चुपचाप क्लर्क की टेबल के पास खड़े रहे। क्लर्क अपने काम में मगन था। फिर वे चुपचाप टूटे हत्थे वाली कुर्सी में बैठ गये। वे दोनों फोटो उनके हाथ में थीं। उन्हें क्लर्क का यूँ अनरियेiक्टव होना अजीब सा लगा। जिस फोटो को लेकर वे और शालिनी घण्टों बात करते हैं, जो उनके लिए बहुत अहम हो गई है। उस फोटो पर कोई इतना अनरियेiक्टव कैसे हो सकता है?
फिर उन्हें यह भी महसूस हुआ, कि वे कुछ ज्यादा ही बोलते है। ज्यादा ही चबड़-चबड़ करते है। उन्होंने क्लर्क को परेशान कर डाला। पूरे समय खुद ही बक-बक करते रहे। क्या ज़रूरत थी, पूरी रामकहानी कहने की ? उन्हें क्लर्क पर थोड़ा तरस आया। वे बैठे रहे। क्लर्क ने अपनी फाइलों से अपनी आँख ऊपर करते हुए उन्हें उड़ती नजर से देखा। फिर बेपरवाही से कहने लगा-
‘बाबा। फोटो नहीं चलेगी। कोई डाक्यूमेण्ट लाना पड़ेगा।‘
उनका भ्रम क्षण भर को टूटा। फोटुओं को सबसे बेहतर मानने का भ्रम। पर दूसरे ही पल वे संभल गये। वे जानते हैं इन फोटुओं से बेहतर कुछ नहीं।उन्हें यकीन है,इनसे बेहतर कुछ नहीं। उन्होनें पलभर सोचा। बस वे क्लर्क को समझा नहीं पाये हैं। इतनी सी तो बात है। बस समझाना है, कि ये फोटुयें सबसे बेहतर कैसे हैं ? उन्हें उस क्लर्क पर थोड़ा गुस्सा भी आया। उनके मन में आया कि कह दें- ये फोटुयें बेहतर हैं। बेहतर हैं उन सब चीजों से जिन्हें तुम रोज देखते हो। क्योंकी तुम्हारे देखने में छलावा है। तुम्हारा देखना डरी हुई आँख का देखना है। उस आँख का देखना है, जो तुम्हारे मन के पैरों तले नाक रगड़ती है। उस आँख का देखना है, जो हर बार देखने से पहले तुम्हारे मन से पूछती है, कि यह देखूं या नहीं। और अगर देखूं तो इस दृश्य से क्या-क्या काट दूँ। क्या-क्या छुपा दूँ। छि: कितने गंदे तरीके से देखती है, आँख.....। आँख का देखना भी कोई देखना है। देखना है, तो इन फोटुओं को देखो। ये उस कैमरे से खींची गई हैं, जिसका कोई मन नहीं है। जिसपर किसी के मन का बस नहीं चलता। जो वही दिखाता है, जो है। और इन फोटुओं के बाद भी तुम कहते हो कि, कोई डाक्युमेण्ट लाओ। ....पागल हो गये हो क्या? तुम्हें शर्म नहीं आती। .....पर वे चुप रहे। उन्हें लगा मामला कहीं बिगड़ ना जाये।
‘डाक्यूमेण्ट वाला प्राब्लम तो आपको पता है।’
‘फिर तो बड़ा मुश्किल है।‘
‘अच्छा तो आप ये वाली फोटो देख लो।‘
‘अरे बाबा..............।‘
‘आप देख तो लो। मुझे यकीन है कि आपके बड़े अधिकारी इस फोटो पर सहमत हो जायेंगे। फिर किसी चीज की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।‘
‘देखिये ये काम करते हुए मुझे दस साल हो गये हैं। मैं जानता हूँ ऐसे नहीं हो सकता।‘
‘अच्छा आप देख तो लो.............।‘
क्लर्क ने उनकी ओर हिकारत भरी नजर से देखा। पर इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। वे उठे और क्लर्क की टेबल के सामने खड़े हो गये। उन्होनें दूसरी तस्वीर उस क्लर्क के सामने रख दी। क्लर्क उस फोटो को देखने लगा। उन्हें अच्छा लगा कि वह अबकी बार वह फोटो को देख रहा है। उन्हें लगा बात बन जायेगी। वे क्लर्क को बताने लगे।
‘ये जीवेन्द्र की आखरी फोटो है। देखो ये मैं हूँ। मैं नहीं चाहता था कि शालिनी उसके क्रेमनेशन में जाये। हमारे यहाँ औरतें नहीं जाती है। पर वह जिद कर के गई थी। स्ट्रांग लेडी........। देखो ये वही है। जीवेन्द्र की चिता के पीछे खड़ी है.................।’
उन्होनें बहुत सपाट ढंग से कहा। क्लर्क उनकी ओर देखने लगा। वे इस फोटो को नहीं लाना चाहते थे। वे पहली वाली ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो भी नहीं लाना चाहते थे। पहले वे कुछ दूसरी फोटुयें ला रहे थे। उन्होंने कुछ दूसरी फोटुयें लोहे के बक्से से निकाल भी ली थीं। वे उन्हीं फोटुओं को लाने वाले थे। उनमें से एक फोटो इiण्डयन मिलिट्री एकेडमी में खींची गई थी। उस रोज एकेडमी में जीवेंद्र की पासिंग आउट परेड थी। वह अपनी मिलिट्री वाली ड्रेस में था। उसने अपनी ड्रेस में वे तमगे लगा रखे थे,जो उसे कुछ देर पहले मिले थे। उसकी शर्ट की बकल पर एक तमगा शालिनी ने भी लगाया था। वह मिलिट्री का अफसर बन चुका था। फर उन तीनों ने वह फोटो खिंचवाई थी। वे, जीवेंद्र और बीच में शालिनी। वह फोटो बड़ी सपाट थी। उस फोटो में स्पष्ट था, कि यह जीवेन्द्र है और ये वे। पूरे बाइस साल का जीवेन्द्र। उनका पूरा परिवार। स्पष्ट सबूत। ये वे हैं, जीवेन्द्र के पिता। कितना स्पष्ट। .........ऐसी कई फोटुयें हैं उनके पास। बिल्कुल स्पष्ट। पर वे उन फोटुओं की जगह ये फोटुयें ले आये। फोटुओं को टटोलते वक्त वे इन फोटुओं पर रुक गये थे। फिर उन्हें ही उठा लिया। वे जानते हैं ये फोटुयें स्पष्ट नहीं हैं। एक सबूत के तौर पर स्पष्ट नहीं हैं। पहली फोटो में गोद में एक बच्चा है। सामने वाला पूछ सकता है, कि वह बच्चा जीवेन्द्र कैसे है। वह कोई और बच्चा भी तो हो सकता है। दूसरी फोटो में जीवेन्द्र की चिता है। उसमें जीवेन्द्र की शकल नहीं दिख रही है। दोनों ही फोटुओं में जीवेन्द्र छुपा हुआ है। फिर वे कैसे कह सकते हैं, कि यह रहा जीवेन्द्र और ये वे। कितनी अस्पष्टता, कि वे कह भी नहीं सकते कि अब कोई गुंजाइश नहीं.....यही सबूत है, कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं।
पर फिर भी वे उन्ही फोटुओं को ले आये। वे दूसरी फोटुयें ले आये। उनका मन हुआ कि वे इन्हीं फोटुओं को ले चलें। उनके लिए फोटो का एक सबूत होना बेमानी हो गया। फोटो का स्पष्ट होना बेमतलब की बात हो गया। वे बस इन्हीं फोटुओं को ले जाना चाहते थे। ये फोटुयें उनकी पसंदीदा फोटुयें जो हैं। फिर उन्होंने अर्से से इन फोटुओं को नहीं देखा था। इन फोटुओं पर किसी से बात नहीं की थी। उनका मन हो रहा था, कि वे इन फोटुओं को किसी को दिखायें। किसी से इन फोटुओं पर बात करें। अगर जीवेंद्र मरा नहीं होता और शालिनी इस तरह दु:खी नहीं होती कि पूरा समय चुप बनी रहे, तो वे शालिनी से ही बात करते। हमेशा की तरह शाम की चाय के साथ इन फोटुयें के बारे में बतियाते। पर यह संभव नहीं है। लेकिन आज उन्हें ऑफिस के क्लर्क से इन पर बात करने का बहाना मिल गया। इन फोटुओं के बहाने, इन फोटुओं पर बात। उनके भीतर कुछ कुलबुला रहा था, जैसे पतीले में खौलता पानी और उसकी भाप से ढक्कन पर जमा लटकती पानी की बूँदें.....। गर्म और गीला, दोनों एक साथ। उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। उन्हें वे फोटुयें ही ले जानी पड़ीं।
इन फोटुओं को लाते वक्त उनके मन में एक बात और थी। उन्हें लगता इन फोटुओं को देखकर क्लर्क पसीज जायेगा। क्लर्क को उन पर दया आ जायेगी। वह उनकी पीड़ा महसूस कर पायेगा। उसका मन खुद उससे कह देगा, कि बहुत हो गया इस दु:खी आत्मा को भटकाते। फिर वह उनसे जीवेन्द्र का पिता होने का सबूत नहीं माँगेगा। वह माँग ही नहीं पायेगा। और यूँ बात आसान हो जायेगी। उनका काम हो जायेगा। रास्ता सुगम हो जायेगा। पर जब-जब उन्हें यह ख्याल आता उन्हें खुद पर शर्म आती। वे ग्लानि से भर जाते। यूँ एक चोर उनके भीतर दुबका बैठा था। उन्हें लगता वे अपना रास्ता निकालने के लिए इन फोटुओं का सहरा ले रहे हैं। उन्होंने कभी इन फोटुओं को अपना रास्ता साफ करने वाली चीज के रूप में नहीं देखा था। उन्हें इन फोटुओं से लगाव था। उन्हें इन फोटुओं से प्यार था। उन्होंने इन फोटुओं को लाभ वाली किसी चीज की तरह नहीं देखा था। उन्हें लाभ वाला गणित सूझा ही नहीं। और जब एक क्षण को यह खयाल आया कि इन फोटुओं के सहारे उनका रास्ता सुगम हो जायेगा, तो वे खुद को जैसे बरदाश्त नहीं कर पा रहे हों। कितना गंदा खयाल है। जब भी वे ऐसा सोचते तो खुद को झटकारने का बेतुका सा प्रयास करते, जैसे कीचड से सनी भ्ौंस अपने शरीर को झटकारती है, पर हर बार झटके के साथ उड़ने वाले कीट पतंगे फिर से उसके शरीर पर आकर बैठ जाते हैं। जब जीवेन्द्र मारा गया था, उन्हें यकीन नहीं हुआ था। उन्होंने जीवेन्द्र को हटाकर नहीं सोचा था। उन्हें नहीं सूझा कि जीवेन्द्र को हटाकर भी सोचा जा सकता है। तभी उन्हें लगा था, जैसे किसी ने उनसे भद्दा मजाक किया हो। फिर जब लगा कि मजाक नहीं है। तब वे देर तक यकीन करते रहे कि बात गलत है। वह सुबह थी। करीब छह बज रहे थे। जीवेन्द्र की ब्रिगेड के ब्रिगेडियर का फोन आया था। वह उन्हीं का फोन था। उन्होनें बिना कुछ इधर-उधर की बात किये स्पष्ट बताया था कि सेकेण्ड लैफिटनैण्ट जीवेन्द्र माथुर एक एम्बुश में मारा गया। उन्होंने कुछ और जगह से फोन पर इस बात को कन्फर्म किया। जीवेन्द्र के एक साथी का भी फोन आया। फिर टी. वी. पर न्यूज़ में भी आया.........। शालिनी सो रही थी। वे देर तक शालिनी से कह नही पाये कि जीवेन्द्र अब नहीं है।
उन्होनें वह फोटो अपने हाथ में उठा ली।
‘ये जो शालिनी के पास खड़ा है। ये देखो.................। ये सांवला सा लड़का। यह जीवेन्द्र का दोस्त है। एस. पिल्लई। आजकल लैफिटनेण्ट हो गया है। जीवेन्द्र अगर ज़िंदा होता तो वह भी लैफिटनेण्ट होता। ........लड़ाई में जाने से पहले जीवेन्द्र वोदका की एक बोतल लाया था। आप जानते हो वोदका। एक रूसी शराब होती है। उसने कहा था, जब हम जंग जीत लेंगे तब वह बोतल खोलेंगे। हम जंग जीत चुके हैं। मेरे पास आज भी वह बोतल है। वह बंद है। मैंने उसे नहीं खोला। मैंने उसे संभाल कर रख लिया है।’
उनकी उंगलिया फिर से काँप रही थीं। उन्होंने वह फोटो क्लर्क की टेबल पर रख दी।
उन्हें वह दिन याद आया जब जीवेन्द्र को मरणोपरांत सम्मान दया गया था। वे और शालिनी दोनों साथ-साथ थे। मिलिट्री का बैण्ड बज रहा था। शालिनी रो रही थी। वे शालिनी को समझा रहे थे। कुछ लोग उनसे हाथ मिला रहे थे। जीवेन्द्र उनकी एक मात्र संतान थी। उन्हें इच्छा हो रही थी, कि वे लोगों को जीवेन्द्र के बारे में बतायें। पर हर मौका जाता रहा। जब लोगों ने पूछा, वे चुप रहे।
वे क्लर्क से कहने लगे-
‘पता नहीं क्यूँ सब अविश्वसनीय सा लगता है। जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो। बचपन में जब जीवेन्द्र छोटा था, मैं उससे बहुत कम बात कर पाता था। मेरी नौकरी कठिन थी। मैं अक्सर देर रात घर लौटता। अक्सर जब मैं रात को घर लौटता, वह सो चुका होता था। सुबह-सुबह वह जल्दी स्कूल चला जाता था। मैं थका होने के कारण अक्सर सुबह जल्दी नहीं उठ पाता था। मैं उससे बहुत कम बात कर पाता था। उन दिनों जीवेन्द्र तीन-चार साल का था। रात को सोने से पहले मैं थोड़ी देर बिस्तर पर लेटे-लेटे कोई नॉवेल पढ़ता। तब यदा-कदा जीवेन्द्र नींद में ऊँघता सा अपने कमरे से दबे पाँव चलकर मेरे कमरे के दरवाजे तक आता और धीरे से पर्दे के किनारे से झाँककर मुझे देखता था। मैं उसे अपने पास बुला लेता। फिर वह नॉवेल के पन्ने पलटता और उसके बारे में मुझसे पूछता। .........आज भी एक भ्रम सा होता है। जैसे घर के किसी पर्दे के पीछे से वह झाँककर मुझे देख रहा है। कितनी पुरानी है यह बात। पर लगता है जैसे वो अभी आ जायेगा। जैसे वह आ सकता है....................।’
कहते-कहते वे अचानक रुक गये। उन्होंने अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया। दूसरी तरफ एक कोरी सफेद दीवार थी। वहाँ कुछ भी नहीं था।
वे अपने आप को समझाते रहते है। वे खुद को समझाते हैं कि कुछ भी तो नहीं हुआ। वे कोशिश करते हैं कि उनका चेहरा सामान्य ही दिखे। पर कुछ है जिस पर वे नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। जब मुट्ठी भींचते हैं तो वह पिचड़कर उंगलियों को सानता हुआ, उंगलियों के बीच से बाहर निकलने लगता है। उनके चेहरे पर कुछ रेखायें उभर आती है। वे रेखायें उनका कहना नहीं मानती है। आँखों में उतरने वाला पानी सबकुछ धुंधला देता है। यह सब वे दूसरों को नहीं दिखाना चाहते हैं। यह सब उन्होंने शालिनी से भी छुपाया है। पर वह सब छुप नहीं पाता है। दूसरों के सामने उन्हें खोल देता है। और तब एक बात छूट जाती है। जीवेन्द्र की बात। जिसे वे बता रहे थे। जिसे वे बता नहीं सकते।
फोटो की बात। जिसे वे कह रहे थे। अधूरी छूट जाती है। एक लाइन है जिसके पार वे नहीं जा पाते हैं। एक लाइन जहाँ फोटो की बात खत्म होती है और उनकी अपनी बात शुरू होती है। जिसे वे पूरे एक साल बाद भी किसी से कह नहीं पाते हैं। शालिनी को तो कभी कह ही नहीं सकते। बाकी लोग अजनबी है। उनसे क्या कहना? इस क्लर्क से जाने वे कैसे कह गये। वे खुद को रोक नहीं पाये। शरीर के साथ-साथ मन में भी एक कमजोरी आ गई है। फिर यह फोटो का जादू है। फोटो कहलवा देती है। उन्हें कहना पड़ता है। उन्होंने कह दिया। फोटो के कारण वे रुक नहीं पाये।
कई बार उनका मन करता है, वे अपने को बिखर जाने दें। सिर्फ़ एक बार। फिर बहता पानी खुद ढाल ढूँढ लेगा। चीजें फिर से उन्हीं जगहों पर जमने लगेंगी, जहाँ से वे हटी हैं। पर वे ख़ुद को ढ़ांढ़स बंधायें रहते हैं। अभी नहीं। यह ठीक नहीं है।
उनका चेहरा दूसरी ओर था। क्लर्क उनका चेहरा नहीं देख सकता था। पानी से भरी उनकी आँखों ने सामने के दृश्य को धुंधला बना दिया था।
‘बाबा....................। परेशान मत हो।’
क्लर्क ने धीरे से कहा।
वे उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने आँसू पोछे। वे जाने लगे। जाते-जाते उन्हें क्लर्क की बात सुनाई दी-
‘बाबा.... इस काम में फोटो की कोई वैल्यू नहीं है। कोई कागज पत्तर हों तो ले आना......।’
वे चले गये। क्लर्क अपने काम में लग गया। पता नहीं वे भूल गये या छोड़ गये....... वे दोनों फोटो क्लर्क की टेबल पर कुछ दिनों तक पड़ी रहीं।
(तरुण भटनागर )
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