Monday, January 09, 2012

ऊँचाई ..

कितने सुन्दर भाव है इस कविता में, जिसमें ऊँचाई पर पहुंचकर खुद में अहंकार न पैदा होने देने की बात कही गयी है  ............... (a Poem by Atal Bihari Vajpayi)

ऊँचे पहाड़ पर
पेड़ नहीं लगते
पौधे नहीं उगते
न घास ही जमती है

जमती है सिर्फ बर्फ
जो कफ़न की तरह सफ़ेद और
मौत की तरह ठंडी होती है
खेलती , खिलखिलाती नदी
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है

ऐसी ऊँचाई
जिसका परस (स्पर्श)
पानी को पत्थर कर दे

ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
अभिनन्दन की अधिकारी है
आरोहियों के लिए आमंत्रण है
उस पर  झंडे गाड़े जा सकते हैं

किन्तु गौरैया
वहां नीड़ नहीं बना सकती
न को थका-मांदा बटोही
उसकी छाँव में पल भाल पलक ही झपका सकता है

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती
सबसे अलग-थलग
परिवेश से पृथक
अपनों से कटा बंटा
शून्य में अकेला खड़ा  होना

पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है

जो जितना ऊँचा
उतना एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ढोता है 
चेहरे पर मुस्कान चिपका
मन ही मन रोता है 

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो
जिससे मनुष्य
ठूंठ सा खड़ा न रहे
औरों से घुले-मिले
किसी को साथ ले
किसी के संग चले ,

भीड़ में खो जाना
यादों में डूब जाना
स्वयं को भूल जाना
अस्तित्व को अर्थ
जीवन को सुगंध देता है

 धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की ज़रुरत है
इतने ऊँचे के आसमान छू लें
नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे
कोई काँटा न चुभे
कोई कली  न खिले

न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा

मेरे प्रभु
इतनी ऊँचाई कभी मत देना
के गैरों के गले न लग सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।

वो फिर हार गए ..........

प्रशांत वस्ल जी नें अपनी इस कविता में उस व्यक्ति की मनोस्थिती का वर्णन किया है जो दंगों के दौरान दंगाईयों के झुण्ड की चपेट में आ जाता है , आईये जानें क्या होता है उसके बाद ......


उनका एक जत्था था और मैं अकेला और निहत्था
उनका लक्ष्य था मुझे मिटाना , और मैं चाहता था
उनके आक्रमण से स्वयं को बचाना
इस प्रयास में मैं भागता
तो वो गोलबंद होकर मुझे नोच खाते
इसलिए मैं भागना स्तगित करके
उनका सामना करने की नीयत से अपनी समस्त इन्द्रियों को एकाग्र कर खड़ा रहा
उन्हें मेरा ये व्यवहार बड़ा अटपटा लगा...
वो मेरे चेहरे पर बेचारगी देखना चाहते थे...जो नहीं थी
वो मुझसे आशा कर रहे थे की मैं दया की याचना करूंगा .....जो मैंने नहीं की
क्योंकि मैं मरने से पहले, मरने को तैयार नहीं था ....
धीरे धीरे वो अनिर्णय की स्थिति में एक दूसरे को देखने लगे
किसी निर्णय के इंतज़ार में
जो कोई स्वयं नहीं लेना चाहता था
क्योंकि निर्णय के सही न होने का दोष हर कोई किसी और को देना चाहता था
धीरे धीरे उनके चेहरे उतर गए
और थोड़ी सी देर में वो मुझसे आँखें चुराते
बरसात के झूठे बादलों की तरह बिखर गए
मेरा अकेलापन फिर उनकी तथागथित एकजुटता से जीत गया था
मगर क्या मैं सच मुच अकेला हूँ
नहीं ....
मेरी सोच पर जो मेरा विश्वास है,  वो मेरे साथ है .... और रहेगा
मेरी ताक़त ...मेरा साथी बनकर सदा