Monday, October 22, 2012

अपराध बोध


इस बात को काफी अरसा बीत गया है। शायद पैंतीस छतीस साल पहले की बात है। उस समय वे नौ या दस साल का रहा होगा। उसने एक चीनी कहानी पढ़ी थी। वह कहानी तो उसे पूरी तरह से याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि कहानी में एक आदमी शहर से कहीं दूर एक ऐसी जगह फँस जाता है जहाँ दलदल और गंदे पानी तथा फिसलन भरे पत्थरों पर जमी काई और झाड़ियों के सिवा कुछ नहीं था। वो वहाँ से निकलना चाहता है पर निकल नहीं पाता। फिर एक दिन उसकी नज़र अचानक अपने हाथ पर जाती है। उसके हाथ पर काई उगने लगी थी। वो आदमी हाथ पर जम आई काई को नोच कर फेंकता है। लेकिन जितना ही वह आदमी काई को नोच कर फेंकने की कोशिश करता है, उतनी ही वे लिजलिजी काई उसके शरीर के दूसरे हिस्सों पर उगने लगती है। फिर काई के लच्छे उसके पूरे शरीर पर उग आते हैं। वह अपने आप से भागने लगता है। कहानी के अन्त में क्या हुया यह तो उसको भूल गया था पर वह कहानी कई दिनों तक उसके मानस पटल पर छाई रही थी। यहाँ तक की कई बार स्वप्न में वह उस आदमी की जगह अपने को देखता था और डर कर उठ जाता। तब वह उस कहानी का अर्थ पूरी तरह समझ नहीं पाया था।
आज वर्षों पश्चात उसे लगता है उस आदमी के हालात में और खुद उसकी
हालत में कोई फर्क नहीं है। वह आदमी और कोई नहीं वह स्वयं ही है और वह काई अपराध भावना है जिसे वह जितना ज्यादा अपने आप से अलग करना चाहता; वह उतनी ही ज्यादा उसके शरीर की मोटी चमड़ी को चीरती हुई उसके भीतर तक घुस गई है; जहाँ उसका हाथ उसे नोच कर बाहर नहीं निकाल सकता है। कई बार उसे लगता है कि वह पागल हो जायेगा। क्या वह सचमुच दोषी है? तर्क कहता है उसकी कोई गलती नहीं पर फिर यह अपराध बोध क्यों?
यह सही है कि कुछ हद तक उसने अपनी ज़िंदगी अपनी मरज़ी मुताबिक जी है पर क्या यह गलत था?
“मन मरज़ी से नहीं बल्कि केवल अपने स्वार्थ के लिये जिये हैं आप” ।
यह और कोई नहीं उसकी बेटी मानसी के कड़वे कटाक्ष हैं, जो अपने पिता को देखते इस तेज़ी से उसके होठों से निकलते हैं जैसे किसी शिकार को देखते हुये शिकारी के धनुष से ज़हर बाण। जब मानसी यह चुभती बातें कहती है तो वह गुस्से से बौख़ला उठता है पर बोल कुछ नहीं पाता। उसकी जुबान जैसे तालू से चिपक जाती है, शायद अन्दर ही अन्दर ही वह जानता कि मानसी के आरोपों में कुछ ना कुछ तो सच है। पर क्या वह सचमुच केवल अपने लिये जिया है?
बचपन में ही उसके माँ बाप गुज़र गये थे। मामा ने उसे अपने पास ज़रूर रखा क्योंकि दूसरा कोई चारा नहीं था। मामी के लिये वह सिवाये बोझ के कभी कुछ नहीं था। अगर वह पढ़ने में अच्छा नहीं होता और गाँव के पोस्टमास्टर साहिब उसकी मदद ना करते तो वह किसी खेत में मज़दूरी कर रहा होता। आज वह आई. ए. एस. है और उच्च ओहदे पर लगा है। वैसे अगर सोचा जाए तो क्या पोस्टमास्टर साब ने भी अपने अहसान की पूरी कीमत नहीं वसूली? मानसिक रुप से अपनी बीमार बेटी उसक सिर मढ़ दी। फिर उसके के भीतर का द्वन्द्व शुरू हो जाता है।
“यार इतने भी अहसान फरामोश ना बनो, कुछ तो सच बोलो। क्या वह सचमुच उस समय बीमार थी? उस समय तो तुम उस पर पूरी तरह आसक्त थे। उसकी बड़ी बड़ी आँखें और सुर्ख गाल, उसका शरमीलापन, उसकी चुप्पी तब तो तुम्हे बेहद लुभाती थी और जब पोस्टमास्टर साब ने अपनी बेटी की शादी का प्रस्ताव रखा था तब तो तुमसे अपनी खुशी छुपाये नहीं छुपती थी।”
“पर तब मुझे क्या पता था कि रोशनी की वह खामोशी ही दरअसल उसकी बीमारी का लक्षण था? क्या पोस्ट मास्टर साब का फ़र्ज़ नहीं बनता था कि वह यह सब उसको बताते?” 
“पर क्या पोस्ट मास्टर साब को स्वयं इसका पता था? क्या उनके जैसा सच्चा और ईमानदार व्यक्ति ऐसा कर सकता था। तुम तो स्वयं उनकी ईमानदारी, उनकी दरियादिली के उदाहरण देते नहीं थकते थे।”
“हाँ यह सही है कि शादी के पश्चात सब कुछ सामान्य ज़रूर लगता था। रोशनी कम बोलती थी यह तो उसे अच्छा ही लगता था। वह थोड़ी मूडी ज़रूर थी; यह बात उसे कभी-कभी ख़लती थी, पर उसे ऐसा तो कभी नहीं लगा की रोशनी नार्मल नहीं। उसको इस बात का हल्का सा आभास तो होता था कि रोशनी कभी कभी उसके पास होते हुये भी उसके पास नहीं होती थी। बल्कि कई बार तो उसे यह शक होने लगता था कि कहीं वह किसी और के ख्यालों में तो नहीं खोई है। पर बीमारी का तो उसके दिमाग में कभी आया तक नहीं।” 
“अपने सिवाय और किसी के बारे में सोचा हो तब तो दिमाग में आता कि शायद माँ बीमार हैं”!
यही मानना है मेरी बेटी मानसी का। 
“आप ने अपने स्वार्थ के लिये माँ का बिलकुल ख्याल नहीं किया पापा”।

शायद उसकी बेटी सही है। अपने स्वार्थ में वो अपनी पत्नी यानी कि रोशनी की बीमारी के आसारों को समझते-बूझते हुये भी अनजान बना रहा। सच तो यह है कि तुम्हारा पूरा वक्त तो प्रभा के साथ बीतता था जिससे अब तुम दूसरा विवाह कर चुके हो। या यह कहना बेहतर होगा कि जिससे तुम्हें मजबूरन विवाह करना पड़ा क्योंकि वह तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली थी। यहाँ तक की कानून से बचने के लिये मुस्लिम नाम तक अपनाया।
रोशनी की बीमारी ने उसे प्रभा के नज़दीक खीचा था या प्रभा की नज़दीकी ही रोशनी की बीमारी का सबब बनी। यह एक ऐसा प्रश्न था जो उसके मन में कई बार उठा पर वह इसक जवाब वह कभी नहीं दे पाया। शायद इस बात का जवाब वे देना ही नहीं चाहता। शायद कहीं ना कहीं वो जानता है कि इससे उसे कोई राहत नहीं मिलने वाली है।
बेटे राजीव का स्वभाव उसकी बेटी मानसी के स्वभाव से बिलकुल अलग है। मानसी मुँहफट है, जो दिल में है वही जुबान पर। अपने पर नियन्त्रण रखना उसकी फ़ितरत में नहीं, अपने नाना की तरह। राजीव जुबान बंद रखता है इसलिए उस के मन में क्या गुज़र रहा है इस बात का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं। कभी कभी उसे लगता है शायद बेटा उसकी परेशानी को समझ पाता है। लेकिन ऐसे हालात में वो बाप की तरफ़दारी करे; ऐसी उम्मीद भी तो नहीं कर सकता।
प्रभा जिसको, उसकी पहली शादी से दोनों ही बच्चे अब फूटी आँख नहीं सुहाते कहती है कि तुम्हारा बेटा तुम्हारी तरह घुन्ना है। शादी से पहले यही प्रभा उसकी प्रशंसा करते नहीं थकती थी पर अब बिना तानों और कड़वे बोलों की बौछारों के जैसे किसी भी बात करने का कोई मतलब ही नहीं रह गया हो। किसी ने सही ही कहा है नारी चरित्र को जान पाना सचमुच बहुत कठिन है। प्रभा की आजकल एक ही रट है। 
 “तुमको दोनो परिवारों में से एक को चुनना होगा”।
जब दोनों की शादी नहीं हुई थी तब प्रभा का सुर और ताल दोनों अलग थे। वो कहा करती थी, “मैं तुम्हें तुम्हारे बच्चों और बीवी से कभी भी छीनना नहीं चाहूँगी।” कितनी बार तो वे उनके लिये तोहफे भिजवाया करती थी।
“बस मैं तुम्हे चाहती हूँ, तुम्हारा साथ चाहती हूँ, तुम्हारे साथ बिताये गये हर पल हर क्षण को मैं सहेज कर रखना चाहती हूँ। मैं उन्हीं के सहारे जी लूँगी।”
उसकी इन्हीं चिकनी चुपड़ी बातों से ही तो वह प्रभावित हो गया था। उसको क्या पता था कि यह सब केवल उसको अपने जाल में फाँसने मात्र का तरीका था पर अब वो फँस चुका है। अब सवाल यह है कि तुम कोई नादान बच्चे थे या फिर बेवाकूफ़?
पहले वह प्रभा के पास जाने के लिये कितना आतुर रहता था कब कम्बख़्त यह काम खत्म हो और वो प्रभा के पास पहुँचे। अब वह उसकी मजबूरी बन कर रह गई है। धमकियाँ, ब्लैक मेलिंग, ताने अब यही सब कुछ उसकी क़िस्मत में रह गया है। इस सब के लिये वह किसको दोष दे; अपने को या फिर भाग्य को। इतने ऊँचे ओहदे पर होने के बावजूद उसकी हालत उस घायल शेर की तरह थी जिसकी शक्ति उससे छिन गई हो और छोटे-छोटे जानवर भी उस पर गुर्राने लगें हों। जैसे शेर शिकारी नहीं शिकार बन गया हो। हर किसी के पास उस पर वार करने के लिये हथियार और अस्ले का असीमित भंडार है लेकिन उसके अपने पास इस सब का सामना करने के लिये ना कोई ढाल ना कोई कवच। हर किसी के पास उस के लिये सवालों की झड़ी है पर उसके पास ना तो उनके ना अपने ही प्रश्नों का कोई उत्तर है। वो करे तो क्या करे? उस पर प्रभा का अलटीमेटम! देखा जाए तो अब उसका व्यक्तित्व दो ख़ेमों में बँट गया है। मन राजीव और मानसी के भविष्य की चिन्ता में तो शरीर प्रभा के पास पड़े रहने के लिये मजबूर। अगले कुछ बरसों में मानसी की शादी करनी होगी, तब उसके अपने दूसरे विवाह को लेकर भी कई बातें उठ सकती हैं। शायद यह सब मानसी की शादी में बाधा डाले। वो ना तो एक परिवार को छोड़ सकता है ना दूसरे को। वे दोहरा जीवन जीते-जीते थक गया है पर अब वो करे तो क्या करे। ना मरने, ना किसी को मारने की हिम्मत है और वो स्वयं मर भी तो नहीं सकता। अब सिवाय अपने आप को कोसने के उसके पास कोई और चारा है। अब उसकी नियती उस चीनी कहानी के आदमी जैसी है। वे कितना भी अपने आप से दूर भागे उसे नहीं लगता कि यह अपराध भावना कभी उसका पीछा छोड़ेगी।

(सरिता बरारा)

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